Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

सोमवार, 27 जून 2011

चार जून की रात


वो रात थी चार जून उन्नीस सौ नवासी की

चीन देश के तियानानमन स्क्वयेर में फैली बदहवासी की

एक लाख से अधिक छात्र कर रहे थे विरोध प्रदर्शन

जिनमे से एक हजार कर रहे थे अनशन

बौखलाई हुई चीनी सरकार ने घेर लिया था शहर

हथियारों और टैंकों से लैश सेना ने ढाया था कहर

चारों तरफ बिछ गयी थी अढाई हजार लाशें

दुनिया देख रही थी तानाशाही चीन में हो रहे तमाशे



वो रात भी थी चार जून की

भ्रष्टाचार के खिलाफ बढ़ते जुनून की

एक योगी ने एक सरकार को दे दी चुनौती

एक लक्ष्य बन गया था - जो था एक मनौती

दो दिन के भूखे प्यासे भारतीय

थक कर लेटे थे निष्क्रिय

दिन भर था जो मन में अथाह

कुछ कर दिखाने का उत्साह

शाम को बदल गयी थी तस्वीर

मुश्किल लगती थी बदलनी तकदीर

क्योंकि खोट था सरकारी नीयत में

समझौते के नाम पर लिखवाए पत्र की बदनीयत में

एक सन्यासी को मंत्रियों ने ठगा

उसे ही ठग बताया जिन्होंने उसे ठगा

यहाँ तक तो इतिहास था धोखे का

कुटिलता से लिए गए मौके का

लेकिन उस रात जो हुआ वो अत्याचार था

प्रजातंत्र पर गहरा प्रहार था

पराकाष्ठा थी दरिंदगी की

सत्ता के गलियारों की गन्दगी की

भूखे प्यासे सोये हुए सत्याग्रही

भूखे भेड़ियों से टूटे पुलिस के दुराग्रही

चाहे थे बच्चे , नारी या नर

बरसे डंडे चाहे था सर या कमर

एक किसी ने लगा दी थी आग

मंच पर लेटे सभी लोग लिए भाग

दो घंटे चला तांडव हिंसा का

उस आन्दोलन पर जो सत्याग्रह था अहिंसा का

सरकार अपनी सफाई लाख दे ले

कभी लालच , कभी धमकी , कभी घुड़की दे ले

ये आग जो सुलग चुकी है देश में

हर प्रान्त हर मजहब के वेश में

ये जला कर कर देगी राख सब

भस्म हो जायेंगे गुस्ताख सब

चीन तो तानाशाही देश था इसलिए जो हुआ सो हुआ

भारत जैसे प्रजातंत्र में ये सब क्यों हुआ ?

शनिवार, 4 जून 2011

रामदेव की रामलीला






हजारों की भीड़ जुटती है

भूखे नंगों और भिखारियों की

जब कोई राजनेता

बांटता है -

साड़ियाँ , टेलीविजन सेट और सौ सौ के नोट

नेता के मुखमंडल पर होता है

एक संतोष

जैसे की वो अपनी वोटों की

लहलहाती फसल को

निरख रहा हो



लेकिन यहाँ क्या बँट रहा है

इस रामलीला मैदान में

सुबह नौ बजे के अन्दर

दो लाख लोगों का जमघट

जो कि बढ़ रहा है

निरंतर

एक अथाह समुद्र सा

मानव शक्ति ले रही है

लहरों सी हिलोरें

ये भीड़ तो बढती जा रही है

और वो फकीर

गेरुए वस्त्रों में अधनंगा सा

उपदेश दे रहा है

आदेश दे रहा है

कह रहा है -

बहुत जगह है

हालांकि इस मैदान में ,

लेकिन कोई गारंटी नहीं

कि शाम को और फिर रात को

जगह मिलेगी

यहाँ आपको सोने की



कह रहा है -

अपनी शक्ति बचा कर रखो

न जाने कितने दिन चले आपका उपवास

मेरी तो तैयारी है

मृत्यु तक

ओह ! तो यहाँ बँट रही है भूख

यहाँ बँट रही है यातना

यहाँ बँट रही है मृत्यु

लाखों लोग यहाँ हैं

इस प्रसाद के लिए ?



राम लीला मैदान में

बहुत देखी हैं राम लीलाएं

लेकिन ऐसी न लीला देखी

न ऐसा राम देखा

गुरुवार, 2 जून 2011

मैं लिखता रहता हूँ !

मैं लिखता रहता हूँ !


कोई पढ़े ना पढ़े

मैं मन के भावों को

चाहे दिखे ना दिखे

मैं अपने घावों को

अपनी कलम से खुरच खुरच कर

रिसता रहता हूँ !

मैं लिखता रहता हूँ !



कोई समझे मेरी

बात भले बेमानी

कोई भी कीमत

उनको नहीं चुकानी

मैं अपने हाथों से अपने को ही

बिकता रहता हूँ !

मैं लिखता रहता हूँ !



अपनी मुसीबतों से

लड़ता जाऊँगा

अपने लिखे को मैं

पढता जाऊँगा

मैं तेज हवाओं के अंधड़ में

टिकता रहता हूँ !

मैं लिखता रहता हूँ !

बुधवार, 1 जून 2011

हर हर गंगे !





हर हर गंगे , हर हर गंगे !



दुनिया का कूड़ा डाल रहे

चाहे गंगा बेहाल रहे

क्या दृष्टिकोण है बेढंगे

हर हर गंगे !



मुर्दों को इसमें बहा रहे

जिसको देखो वो नहा रहे

तन से नंगे मन से नंगे

हर हर गंगे !



पानी सर ऊपर चला गया

अमृत विष बन कर मला गया

कैसे होंगे अब सब चंगे

हर हर गंगे !

मंगलवार, 31 मई 2011

प्रिय पाठक

प्रिय पाठक


आज थोड़ी बातचीत आपसे ! मुझे बहुत ख़ुशी होती है , जब मैं ये देखता हूँ कि न केवल भारत में बल्कि दुनिया कि विभिन्न देशों में हिंदी पढने और समझने वाले मित्र हैं , जो मेरे ब्लोग्स को पसंद करते हैं और पढ़ते रहते हैं . वास्तव में आप का पढना ही मेरे लिखने का कारण और प्रेरणा है. क्या ही अच्छा होता अगर मैं आप के विचार जान पाता ! किसी रचना को पढ़ कर आप को शायद बहुत आनंद आता होगा ; किसी रचना को पढ़ कर लगता होगा कि कुछ कमी रह गयी . कभी आपके मन में ये भी आता होगा कि इस रचना को किसी और ढंग से लिखते तो अच्छा होता , कभी ये कि ये रचना ब्लॉग के लायक थी ही नहीं ! आप को जैसा भी लगता हो , अगर आप अपनी बात को हिंदी या अंग्रेजी में हर रचना के नीचे बने कमेंट्स नाम के लाइव लिंक को क्लिक कर के सामने आये हुए बॉक्स में लिखें . अपने नाम की जगह नाम लिखें . हाँ अगर इंटर नेट पर हिंदी में लिखना चाहें तो आप सहारा लें इस गूगल की इस ख़ास सेवा का जो आपको दुनिया की कितनी ही भाषाओँ में लिखने का पन्ना देती है ; लिंक ये है www .google .com /transliterate . थोड़े अभ्यास के बाद आप हिंदी में लिखना शुरू कर देंगे . जो लिखा उसे कॉपी और पेस्ट तकनीक से आप कमेन्ट बॉक्स में छाप सकते हैं . आपके कमेंट्स मुझे बहुत सहयोग देंगे . अगर आपने किसी कमेन्ट के माध्यम से कोई प्रश्न पूछा तो मैं उसका कमेंट्स के माध्यम से ही उत्तर भी दूंगा .आशा करता हूँ आप से जुड़ने का मौका मिलेगा .

आपका मित्र

महेंद्र आर्य , मुंबई , भारत

गुरुवार, 26 मई 2011

ठहराव नहीं जीवन

ठहराव नहीं जीवन
बिखराव नहीं जीवन 
तूफानों से लडती 
एक नाव - यही जीवन 

सुख दुःख में अंतर है 
जीवन परतंत्र है 
चाहें न चाहें हम 
संघर्ष निरंतर है 

कुछ भी होता रहता 
मन सब कुछ है सहता 
साँसे चलती रहती 
जीवन चलता रहता 

घड़ियाँ आती जाती 
इच्छाएं मर जाती 
मुट्ठी में रेत जैसे 
इक उम्र फिसल जाती 

मंगलवार, 24 मई 2011

पुनर्जन्म


जन्म
एक प्रारंभ
एक सत्य
एक यात्रा

मृत्यु
एक विराम
एक और सत्य
एक गंतव्य

पुनर्जन्म
पुनः प्रारंभ
एक विश्वास
फिर एक नयी यात्रा

जन्म या पुनर्जन्म
अंतर - स्मृति या विस्मृति

शुक्रवार, 20 मई 2011

अन्धविश्वास

आस्थाओं के अँधेरे में
सहमी सहमी मानवता
पीढ़ियों की धरोहर
निरंतर गहनता !

आसान नहीं है
अंधेरों  को स्वीकारना
बुद्धि को झुठलाना
चिंतन को नकारना !

ज्ञान विवेक शिक्षा
सब पर ताला एक लगा
एक पुरानी किताब की धूल
का तिलक लगाना !

कितना मुश्किल है
अँधेरे  में सीढियां उतरना
हाथ में एक नयी टोर्च 
बंद कर के झुलाते हुए !

 आस्थाएं जो अंधी हैं
आस्थाएं जो बहरी हैं
आस्थाएं जो गूंगी है
आस्थाएं जो बूढी हैं

आस्थाएं जो विवाह है
आस्थाएं जो दहेज़ है
आस्थाएं जो आग है
आस्थाएं जो सती है

आस्थाएं को तलवार हैं
आस्थाएं जो बलि हैं
आस्थाएं जो जाति है
आस्थाएं जो नर संहार हैं 

आस्थाएं जो अछूत हैं 
आस्थाएं जो भूत हैं 
आस्थाएं जो डायन हैं 
आस्थाएं छुआछूत है 

आत्मा की आवाज को दबा चुकी आस्थाएं 
मन की मुस्कान को खा चुकी आस्थाएं 
ह्रदय की करुना को पी चुकी आस्थाएं 
हिंसा के तांडव को जी चुकी आस्थाएं 

अरे, कोई तो खड़ा हो सीना तान कर 
आत्मा को पहचान कर , बुद्धि को मान कर 
कोई तो उठाये एक पत्थर 
और दे मारे अन्धविश्वास के दुर्ग पर  

गुरुवार, 19 मई 2011

स्वागत नव वर्ष !

वर्ष २०१० बीत गया
वर्ष २०११ शुरू हुआ
क्या बदल गया ?
दिवार पर लगा हुआ एक कलेंडर
या
बस समय पर लगा हुआ एक लेबल

हम मनुष्य
रोक नहीं सकते समय को
बाँध नहीं सकते क्षणों के बहाव को
क्षण भर के लिए भी

जैसे दफ्तर में होते हैं
ढेर सारे कागज
उन्हें हम सजा देते हैं फाइलों में
और हर फ़ाइल को दे देते हैं एक नाम

उसी तरह
जीवन के क्षणों को संजोने के लिए
हमने दे दिए कुछ नाम
समय की  हर इकाई को

हमने दे दिए  ये नाम
घंटा मिनट सेकेण्ड
दिन सप्ताह माह
वर्ष सदी सहस्त्राब्दी

फिर हम देते हैं एक लेबल
समय की हर इकाई को
एक बजे, डेढ़ बजे .....बारह बजे
पहली तारीख , सातवीं तारीख ...तीसवीं तारीख
जनवरी फरवरी दिसंबर
२००९. २०१० , २०११

और फिर हम खेलते हैं
एक और नया खेल
हम ढूंढते हैं
ख़ुशी के बहाने
इन असंख्य लेबलों में -
जन्म का दिन , विवाह का दिन ,
रजत जयंती , स्वर्ण गाँठ
बड़ा दिन , नया वर्ष !

यदि परिवर्तन ही ख़ुशी है
तो हर दिन नया  होता है
बल्कि हर पल नया होता है
लेकिन हर नए लेबल के साथ
हम पुराने होते हैं
बढ़ते रहतें हैं - अपनी मृत्यु की तरफ
हर पल , हर दिन , हर वर्ष

दिवार पर लगे कलेंडर
और हम में
सिर्फ एक फर्क है
कलेंडर की उम्र होती है - एक वर्ष
हमारी - शून्य से शतक तक कुछ भी

नव वर्ष पर
हम ख़ुशी मानते हैं
एक नए कलेंडर के जन्म की
या फिर अपनी -
शून्य से शतक की और
अब तक की सफल यात्रा की

चलो कोई कारण तो मिला
खुश होने का
३१ दिसंबर २०१० की रात है
घडी ने बारह बजा दिए हैं
हैप्पी न्यू इअर टू मी !!!!


बुधवार, 18 मई 2011

काश !

काश ! हर इंसान इक अवतार होता !
और ही होती धरा ,
कुछ और ही संसार होता

ना कहीं अपराध होता
ना कोई बर्बाद होता
ना कोई इल्जाम होता
ना कोई बदनाम होता
पुलिस थाने ही ना होते
जेलखाने ही ना होते
ना कोई होती अदालत
ना कोई होती वकालत
ना कोई कानून होता
न्याय का ना खून होता
हर कचहरी की जगह पर
चमन इक गुलजार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता !

घर की रक्षा के लिए
कुत्ते ना पाले होते
द्वार पर कुण्डी ना होती
और ना ताले होते
खिड़कियाँ होती मगर
होती ना यूँ सलाखें
रात को दरवान की
जगती ना रहती आँखें
हाथ में होती घडी
बनती ना कोई हथकड़ी
धातु तो होता मगर
कुछ और ही व्यवहार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता !

देश की सीमा ना होती
और फिर सेना ना होती
ना कोई हथियार होते
युद्ध के ना आसार होते
ना कोई बन्दूक होती
ना भरी बारूद होती
विश्व सबका देश होता
प्रेम का परिवेश होता
शांति का संवाद होता
और न आतंकवाद होता
प्राण लेने को किसी के
ना कोई लाचार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता !

हे प्रभो ! तू कर सके तो
ऐसा ही कुछ योग कर
हों सभी अवतार तेरे
ऐसा कुछ प्रयोग कर
यह धरा वर्ना किसी दिन
खून में बह  जायेगी
देख तेरी श्रृष्टि यह
निष्प्राण फिर रह जायेगी
तूने ही सबको बनाया
तूने ही सब कुछ कराया
तू अगर जो चाहता
ऐसा ना ये संसार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता


गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

रात और दिन

रात खामोश खड़ी है
जैसे अपराध भाव लिए
रौशनी के दरिया के करीब
कूद कर प्राण देने को
रात जैसे यूँ अड़ी है !

रौशनी की प्रखर किरणे
कर देगी यूँ तार तार इसको
स्याह्पन सारा यूँ धुल जाएगा
रात का अस्तित्व ही जैसे
दिन में पूरा ही ज्यों घुल जाएगा !

लेकिन दिन भर के कारनामों से
फिर से उभरेगी कालिमा की लहर
फिर से स्याही चढ़ेगी दामन पर
फिर से एक और रात आएगी
मुह छिपाएगा जिसमे उजिआला
जैसे अपनी किये पे शर्मिंदा
हो के ज्यों दिन भी अब छुपा फिरता
सांझ की उँगलियों को थामे बस
दिन फिर एक बार रात में ढलता !

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

घुड़दौड़

घुड़दौड़

भागते घोड़े नहीं ये

भागती तकदीर है

भागती तकदीर की ये

जागती तस्वीर है

दूर बैठे लोग कितने

हैं लगते दांव को

कैमरे कितने लगे जो

आंकते हैं पांव को

कोई लाखों पा चुकेगा

कोई देगा हार सब

खेल अद्भुत ये निराला

खेलता सवार सब


गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे का अनशन


मंत्री बन बन के बैठे सब हो गए धन्ना
चूस लिया है अर्थ देश का जैसे गन्ना
लोकपाल के बिल को दाब दिया था बिल में
इसी लिए अब अनशन पर बैठे हैं अन्ना

लोकपाल के बिल का लेखा देश लिखेगा
भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का चेहरा साफ़ दिखेगा
बहुत पुत चुकी कालिख खद्दर के कपड़ों पर
भारत का जन मानस अब इतिहास लिखेगा

लाखों में से एक हुआ था बापू गाँधी
उसके चरखे के धागे ने पीड़ा बांधी
फिर से एक बार आजादी को पाने को
चली जोर से हैं अन्ना गाँधी की आंधी

प्राणों की परवाह नहीं है इस बन्दे को
धन की पद की चाह नहीं है इस बन्दे को
तब तक ग्रहण करेगा ना अन्ना भोजन को
जब तक बंद नहीं कर दे काले धंधे को

बुधवार, 30 मार्च 2011

आधा जीवन

काल समूचा दिवस रात्रि में बंट जाता है
सोचो आधा जीवन सोने में जाता है !

आधा जीवन गुजरा बचपन और बुढ़ापा
कर्म के लिए चौथाई जीवन आता है !

आधा जीवन आधे मन से अगर जिया तो
आधे का आधा जीवन ही रह जाता है !

जीवन में यदि मित्र बना पाए न कोई
मीत बिना जीवन फिर आधा हो जाता है !

दुनिया रखे - याद किया न कुछ भी ऐसा
क्या पूरा क्या आधा - बस आता जाता है !

मंगलवार, 22 मार्च 2011

कमेंट्री - गल्ली क्रिकेट की

चंदू हलवाई एंड से गेंदबाजी करने को तैयार लल्लू
लच्छू नाई के सलून एंड पर बैटिंग को तैयार बिल्लू


फील्डिंग की जमावट भी जोरदार
विकेट के पीछे हैं जस्सी फौजदार


सिली पॉइंट पर है शीलू
मिड ऑफ़ पर हैं नीलू


थर्ड मैन की तरफ पप्पू
सेकेण्ड स्लिप पर गप्पू


दीपू , गुल्लू , चम्पू और दिवाकर
खड़े हैं सब सीमा रेखा पर


लल्लू ने हाथ घुमाया और गेंद डाली
बिल्लू ने बल्ला घुमाया और गेंद उछाली


अम्पायर नथू चिल्लाया - छक्का
बिल्लू रह गया हक्का बक्का


सामने आ रही थी चंद्रमुखी आंटी
गुस्से में कस कर बैट्समन को डांटी


कल लाये थी पानी की नयी मटकी
बाल मार कर तुमने है पटकी


तभी आंटी की नजर पड़ी विकेट पर
अब की मारा गया विकेट कीपर


" ओये मैं सोचूं घर की चप्पले कहाँ गयी,
सारी की सारी यहाँ फंसा दई

इन डंडों के बीच में
मुस्टंडों के बीच में "


खेल में पूरा पड़ गया पंगा
एक हाथ में चप्पल एक हाथ में डंडा


बच्चे हो गए तितर बितर
आंटी घुस गयी घर के भीतर



रविवार, 20 मार्च 2011

जापान की विभीषिका

जागते पहर पहर
रात है कहर कहर
क्यूं न नजर आ रही
एक नयी सहर सहर

सुख बने सपन सभी
दुःख भरे नयन सभी
जिंदगी न जाने क्यूं
है गयी ठहर ठहर

कंठ नीले पड़ गए
होंठ जैसे जड़ गए
अमृतों की चाह में
पी रहे जहर जहर

उड़ गयी चमक दमक
सिन्धु में भरा नमक
दुःख और दर्द की
उठ रही लहर लहर

मंगलवार, 15 मार्च 2011

इन्द्रधनुष जिंदगी


रंग से सजी दुनिया , इन्द्रधनुष जिंदगी
चित्रकार ईश्वर है , कैनवास जिंदगी

खुशियों का रंग लाल ,जैसे उडती गुलाल
जैसे खिलता गुलाब , मेहँदी रचती है लाल
जीवन की खुशियों से है मीठास जिंदगी

कुदरत का रंग हरा , ताजगी से है ये भरा
वर्षा में हरियाली , ढक लेती है ये धरा
सब्ज रंग खुशबु है , और सुवास जिंदगी

रंग सबसे चमकीला , सोने का रंग पीला
सूरज का , अग्नि का, तेज कितना दमकीला
तेज चेहरे पर हो तो प्रकाश जिंदगी

क्षितिजों के अन्दर है , ये नीला अम्बर है
कितनी गहराई है , नीलिमा समंदर है
मन जिसका छोर नहीं वो आकाश जिंदगी

है सुफेद रंग सदा , शीतल और शांत है
चन्द्र, दुग्ध , हिम जैसे , चांदनी निशांत है
स्निग्ध संगमरमर सी संगतराश जिंदगी

रंग एक गहरा है , रात जिसका चेहरा है
जिंदगी के रंगों पर , काल का ही पहरा है
काली अमावस के पास पास जिंदगी

शनिवार, 12 मार्च 2011

जापान

जापान
टापुओं का एक समूह
थोड़ी सी ज़मीन
थोड़ी सी आबादी
लेकिन ढेर सारा दिमाग
ढेर सारी मेहनत
और इसलिए ढेर सारी समृद्धि

जापान
एक अद्वितीय उदहारण
तबाही से उबरने का
हिरोशिमा और नागासाकी
की आणविक बमबारी
जिसने समाप्त कर दिया था
जापान को
लेकिन जापान उठ खड़ा हुआ
एक योद्धा की तरह अपने पुनर्निर्माण में

जापान
एक बार फिर घिर गया है
तबाही की चपेट में
भूकंप से रोज खेलने वाला जापान
इस बार फंस गया
महा विध्वंसकारी भूकंप में
अभूतपूर्व जलजला !
और उस पर चढ़ आया
वो मृत्यु का सैलाब
सुनामी !
विध्वंस जारी है
आंकड़ों से तेज भाग रही है मौत
प्रत्यक्ष दर्शी है विश्व

शास्त्रों  में सुना है
प्रलय होती है
शायद ऐसी ही होती है
एक चेतावनी है ईश्वर की
संपूर्ण मानवता को 
कि अपनी सीमायें मत लाँघो

जापान 
फिर एक बार जुट जाओ 
पुनर्निर्माण में 
शक्तिशाली ही सह सकता है ऐसा घाव 
ईश्वर भी ये जानता है  



मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

कसाब का फैसला

हाई कोर्ट ने भी सुना दिया फैसला
कसाब को दी जाये फांसी
लेकिन ये नहीं सुनाया कि कब
अखबार बताते हैं
कि शायद २०१८ तक !

बहुत निराश हैं वो लोग
जिन्होंने खोया किसी अपने को
मुंबई में उस रात
२६ नवम्बर २००८ को !

यानि कि कसाब जिन्दा रहेगा दस साल तक
ऐसे खुले आम खूनी खेल के बाद .

मेरी दरख्वास्त  है
देश के उच्चतम न्यायालय  से
हमें मंजूर है
यह दस साल कि रियायत 
लेकिन एक सुधार कर देवें फैसले में  
कसाब को ले जाया जाए
उन तमाम लोगों के घर
जिन्होंने खोया था उस रात
अपना बेटा- बेटी ,पति- पत्नी माँ -बाप या  भाई बहन,
उन्हें निकाल लेने दो अपने मन की
सिर्फ एक बार
इस जीवित कसाब पर

और उसके बाद
उसे बंद रखा जाए
एक ऐसी कोठरी में
जहाँ इन दस सालों में
उसे किसी इंसान के दर्शन न हों
और उस कोठरी की दीवारों पर
निरंतर चलती रहे एक फिल्म
उन तीन दिनों के खूनी खेल की
जो आज भी हम टी वी पर देखतें हैं
और नेपथ्य से आती रहें
वो तमाम आवाजें
जो उन तीन दिनों में
आ रही थी - उन मासूम लोगों के ह्रदय से
चीख , रुदन , प्रार्थना , श्राप , आह , कराह
और इन दस सालों में
उसे खाने को दिया जाए
लावारिस इंसानी लाश
पीने को दिया जाए
लाल खून !

तब जाकर न्याय होगा
उन सभी बदकिस्मत मरने वालों के साथ
उनके परिवारों के साथ
मुंबई के साथ
पूरे हिंदुस्तान के साथ
इंसानियत के साथ


शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

मुंबई ७/११/२००६

मुंबई
मेरा शहर मेरा दोस्त
मेरा सपना मेरा अपना
मेरा घर मेरा दफ्तर
मेरी सुबह मेरी शाम
मुंबई - मेरा जीवन

मुंबई- एक विशाल हथेली
जिस पर खिंची आड़ी तिरछी रेखाएं
एक है जीवन रेखा - वेस्टर्न रेल
दूसरी भाग्य रेखा - सेन्ट्रल रेल
दौड़ता है जीवन इन रेखाओं में
धडकता है दिल मुंबई का इन बाँहों में

फिर किसने की शरारत , मुंबई की आत्मा से
कौन शैतान है वो जो डरता नहीं परमात्मा से
किसने बिछाया बारूद इन पटरियों पर
कौन बैठा है मौत की गठरियों पर

खेल चूका वो दांव जिसे खेलना था
झेल चुके हम लोग जो कुछ झेलना था
सैकंडों लाशें , छितराए अंग , खून की नदियाँ
क्या यही लक्ष्य था ?
ये सब किस बात का था जरिया ?

लक्ष्य जो भी हो वो जीत नहीं पायेगा
उसका खौफ मुंबई की आत्मा को हरा नहीं पायेगा
इन हादसों से मुंबई नहीं हिलती
क्योंकि मुंबई जैसी आत्मा कहीं नहीं मिलती

दो चार ने गद्दारी की इस शहर में
लाखों लोग आगे आये इस कहर में
घायलों को कष्ट से बचाने के लिए
जख्मों पर मरहम लगाने के लिए

एक हादसा कुछ भी मिटा नहीं सकता
दिलों की दौलत को घटा नहीं सकता
दरिया के बीच अलसाया  सा मुंबई शहर
नफरतों की आग कोई मिसमे लगा नहीं सकता    

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

इरादे

 दुखों के जंगल में
सुख की पगडण्डी है
चौराहा उलझन का
निर्णय की मंजिल है

कुछ अनजाने डर से
रातें अन्धियायी है 
चिंताओं की रेखा
माथे पर छाई है

फिर भी राहें दिखती
बिजली की तड़पन से
डर भी मिट मिट जाता
पत्तों की खडकन से

राहों में शूल बिछे
अनबूझी मुश्किल  के
शूलों में फूल खिले
खुशियों के दो पल के

पग में कांटे चुभते
जीवन के वादों के
पावों  में जूते हैं
मजबूत इरादों के
 

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

प्रभु पास तुम्हारे चल कर आयेंगे

जब मंजिल कहीं नजर नहीं आती हो
राहों की मुश्किल तुम्हे रुलाती हो
जब नभ पर अँधियारा बढ़ आया हो
और तेज हवा से अंधड़ आया हो
तब हाथों को ले जोड़ ' प्रभो ' कहना
और नैनो को कर मूँद 'प्रभो' कहना
प्रभु पास तुम्हारे चल कर आयेंगे
दोनों हाथों से तुम्हे उठाएंगे !
 
जब मन में कोई उलझन हो भारी
जब उथल पुथल लगती दुनिया सारी
जब सारे रस्ते बंद नजर आते
जब प्रश्नों  के उत्तर नहीं मिल पाते
तब मन में करना ध्यान और कहना
'प्रभु मदद करो, अब चुप मत रहना'
मन के दरवाजे से प्रभु आयेंगे
और सारे प्रश्नों को सुलझाएंगे
 
जब सारे अपने बेगाने लगते
जाने पहचाने अनजाने लगते
जब लोगों पर विश्वास ख़त्म होता
अपनों के हाथों घोर  जख्म होता
तब उसको अपना मान, शांत होना
उसके चरणों में बैठ दर्द रोना 
सर सहलाने को तब प्रभि आयेंगे
आंसू पोछेंगे तुम्हे मनाएंगे

शनिवार, 22 जनवरी 2011

मैं क्या मेरा अस्तित्व है क्या

खुद को तकता आईने में

और खुश होता मन ही मन में

मैं तो मैं हूँ

मैं ही मैं हूँ

मैं मैं में उलझा रहता मैं

बस मैं की सुनता रहता मैं

लेकिन जब मैं बाहर निकला

मैं से मैं भी बाहर निकला

दुनिया देखी जब घूम घूम

पाई बस उसकी धूम धूम

अब लगता हैं मैं तो क्या हूँ

खुद को छोटा सा लगता हूँ

मैं क्या मेरा अस्तित्व है क्या

मेरा अपना महत्व ही क्या

ईश्वर की इस उंचाई पर

नीचे तक की गहराई पर

खुद को खो कर उसको पाया

मन शुद्ध हुआ जब रो पाया

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

उससे डरो

हम खरीदते हैं , बेचते हैं जमीन के टुकड़े
इतनी बड़ी पृथ्वी का एक छोटा सा हिस्सा मेरा
मैं इसका मालिक हूँ - ऐसा हम सोचते हैं
इस तरह से हमने आपस में बाँट डाली ,
बेच डाली सारी पृथ्वी
इस मल्कियत के लिए होते हैं
झगडे , मुकदमे और खून खराबे
हम बना लेते हैं अपने घर और दुकान
अपने टुकड़े पर
इन्हें बनाने के लिए लेते हैं
लिखित आज्ञा नगर निगम से और सरकार से
लेकिन कभी आज्ञा ली उस से
जिसने बनाया पृथ्वी को
सिर्फ बनाया ही नहीं , बसाया भी
देकर धूप, पानी , मिटटी खेत , पर्वत, नदियाँ ,पेड़ पौधे
वनस्पति , जीव , जानवर और खुद हमें
हम उपभोग करते हैं इन सब का
बिना उसकी आज्ञा के
आज्ञा हमने ली नहीं, लेकिन उसने दी है
उपभोग करने की , उपयोग करने के
इसीलिए हम कर पा रहें हैं
वर्ना जिस दिन उसने "ना " में सर हिला दिया
उस दिन हिल जायेगी सारी पृथ्वी
धूल में मिल जायेंगे तुम्हारे महल
खाक हो जाएगी तुम्हारी दुकान
और साफ़ हो जाओगे तुम

इसलिए उसकी आज्ञा में रहो
उससे डरो तुम
क्योंकि जिसने दी हैं
जिंदगी , वनस्पति , चाँद और सूरज
वही दे सकता है
मृत्यु , सुनामी , भूकंप और बाढ़

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

खुदगर्ज हूँ मैं

खुद पे ही खुद का कर्ज हूँ मैं
खुद हूँ दवा खुद मर्ज हूँ मैं


जी रहा हूँ मैं बस अपने वास्ते
हूँ कितना स्वार्थी खुदगर्ज हूँ मैं


सोचता हूँ मैं मेरे परिवार तक
बस इतने दायरे में अपना फर्ज हूँ मैं


जिन्दा रह सकूँ बस इतना सोच कर
सांस लेने की महज इक गर्ज हूँ मैं


जिंदगी का साज यूँ ही बज रहा
सुर में बेसुर में जो तर्ज हूँ मैं


उसकी फेहरिस्त से भला बचा है कौन
थोडा आगे या पीछे - पर दर्ज हूँ मैं

बुधवार, 5 जनवरी 2011

पत्थर और फूल

कितना मजबूत होता है पत्थर
कितना अडिग कितना अटल
कभी टूटता नहीं
कभी फूटता नहीं
जितना बड़ा हो उतना भारी
जितना गड़ा हो उतना भारी
वर्षा की झड़ से गलता नहीं
सूरज की किरणों से जलता नहीं
कीट पतंग  इसे खा नहीं सकते
जंगल के जानवर हिला नहीं सकते
कितना मजबूत होता है पत्थर
कितना मजबूत होता है पत्थर !

कितना कमजोर होता है फूल
कितना लाचार कितना निर्भर
तोड़ो तो टूट जाता है
छेड़ो तो बिखर जाता है
छोटा सा कितना हल्का सा
हवा से हिलता डुलता सा
सावन की बारिश को सह नहीं सकता
जेठ की किरणों में रह नहीं सकता
तितली भ्रमर कीट इसे खा ले
धीमी सी पवन इस डुला ले
कितना कमजोर होता है फूल
कितना कमजोर होता है फूल !

लेकिन पत्थर ! तुम किसी को क्या दे सकते हो
पत्थर हो बस कठोरता दे सकते हो
नंगे पैरों के लिए अंगार हो तुम
क्रोधित मन के लिए हथियार हो तुम
आपस में मिलो तो आग उगलते हो
बीच में कोई आये तो उसे मसलते हो
वर्षा की बूंदे बिखरती हैं तुम पर
संगीत की ध्वनि भी मुडती है तुम पर
पत्थर हो संगदिल हो , क्या दे सकते हो
अपनी निर्मम कठोरता दे सकते हो !

फूल  तुम छोटे सही ! सब तुम्हे कितना प्यार करते हैं
फूल तुम हलके सही ! सब कितना दुलार करते हैं
श्वासों  के लिए मधुर गंध हो
आँखों के लिए गुलाबी ठण्ड हो
ओस की बूंदों का शृंगार हो
भंवरों के लिए रस की धार हो
चित्रकार के रंगों की कल्पना हो
पर्व पर आँगन की अल्पना हो
मीठे संगीत का वातावरण हो
ईश्वर की मूर्ति का अलंकरण हो
भक्त के हाथों में पूजन हो
दुल्हन के हाथों में कंगन हो
प्रेमिका को प्यारा उपहार हो तुम
बुजुर्गों का आदर सत्कार हो तुम
तोरण हो सजे हुए द्वार पर तुम
भारी हो मोतियों के हार पर तुम
दुल्हे के माथे पर सेहरा हो
नवजात शिशु का चेहरा हो
विजय के क्षण में जयनाद हो
यज्ञवेदी  पर आशीर्वाद हो 
स्वागत हो जीवन के जन्म पर तुम
अंत तक के साथी मृत्यु पर तुम

एक प्रार्थना है ईश्वर से - गलत या सही
फूल सा कमजोर बना , पत्थर सा मजबूत नहीं

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

शुभ हो अगला साल !

शुभ हो अगला साल !
ना आवे भूकंप सुनामी
ना आवे भूचाल , शुभ हो अगला साल !

ना कोई आतंकी घुस आवे
ना कोई दुश्मन घात लगावे
अमन चैन से रहे देश यह
जीवन हो खुशहाल, शुभ हो अगला साल !

भ्रष्टाचार मिटे इस भू से
बचे रहे सब इस थू थू से
नेतागण आदर्श बने सब
देवें एक मिशाल , शुभ हो अगला साल !

रहे प्रगति पर देश हमारा
किसी से हो ना द्वेष हमारा
दुनिया चाहे मैत्री हम से
ऐसा करें कमाल , शुभ हो अगला साल !

बच्चा बच्चा सभी सुखी हो
कोई भारतीय नहीं दुखी हो
लक्ष्मी जी की कृपा रहे अब
कोई ना हो कंगाल , शुभ हो अगला साल !

मन में हो संतोष सभी के
जीवन में हो जोश सभी के
आपस में सौहार्द्र रहे और
ख़त्म सभी जंजाल, , शुभ हो अगला साल !

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

सुबह का अखबार

सोचता हूँ

अखबार पढना बंद कर दूं

क्या पढूं

एक विदेशी महिला का बलात्कार

पांच वर्षीया बालिका से कुकर्म

पिता द्वारा बेटी गर्भवती

पुलिस थाने में युवती से सामूहिक बलात्कार

तांत्रिक द्वारा माँ और बेटी के साथ लगातार कुकर्म



क्या इतनी गिर गयी है

समाज की सोच

या आने बाकी है

गिरावट के और भी आयाम

आम आदमी इतना जानवर हो गया है .........

अपनी बात वापस लेता हूँ

जानवर से क्षमा मांगते हुए

जानवर अपनी पृकृति से बाहर कुछ नहीं करता

प्रकृति जो ईश्वर प्रदत है



लेकिन मेरे अखबार न पढने से क्या होगा

समाचार तो नहीं बदल जायेंगे

समाचार बदलेंगे

सम आचार बदलने से

जब तक इस देश में

सीटियाँ बजती रहेंगी

किसी मुन्नी के बदनाम होने पर

तब तक अखबार ऐसे ही भरा रहेगा

मुनियों के बलात्कार की खबरों से

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

अलसाई सी धूप

आँगन में उतरी, पसरी है - अलसाई सी धूप 
जाड़े की सुबह में थोड़ी ठिठुराई  सी धूप

गर्मी में आती मुडेर पर गुस्से में हो लाल
दोपहरी में ज्वाला बनती , गुस्साई सी धूप 

वर्षा में बादल बच्चों सी अठखेली करते हैं 
लुका छिपी करती उनसे ,मुस्काई सी धूप 

वर्षा की बूंदों से मिल कर , श्रृंगारित होती है 
इन्द्रधनुष की वेणी पहने , शरमाई सी धूप 

पतझड़ के पेड़ों से कहती - ये क्या हाल बनाया 
सूखे पत्तों को झड्काती , पुरवाई सी धूप 

दिन का मौसम कैसा भी हो, शाम मगर वैसी ही 
जैसे सूरज ढलता जाता , कुम्हलाई सी धूप

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

आग रिश्तों को लगा दो

रात गहरी चाँद मद्धम, मिल सकेगी राह क्योंकर
घोर जंगल मार्ग दुर्गम, कोई हो आगाह क्योंकर


आदमी से जानवर अब, जानवर से आदमी हैं
कौन किसको मीत समझे , और हो निर्वाह क्योंकर


जिसको था सर्वस्व सौंपा , उसने ही सर्वस्व लूटा
मौन अब वाणी बना है , सांस बन गयी आह क्योंकर


साथ जीने की कसम ली , साथ मरने की कसम ली
मृत्यु से पहले चिता दी , जिंदगी को दाह क्योंकर


आग रिश्तों को लगा दो , मृत्यु किश्तों की मिटा दो
ख़त्म कर दो बन्धनों को , अब चलें उस राह क्योंकर

रविवार, 5 दिसंबर 2010

अपने अपने दायरे

हर दिन शुरू होता है

सूरज की किरणों के साथ

पूर्व से आती वो शक्ति की रेखाएं

भर देती हैं पृथ्वी को

उजास से ऊर्जा से उत्साह से

अंतर्ध्यान हो जाता हैं

अन्धकार,आलस्य ,प्रमाद

जैसे जैसे सूरज चढ़ता है

किरणे प्रखर होती हैं

कार्यशील होती है

पृथ्वी पर श्रृष्टि

पशु पंक्षी कीट पतंग और मनुष्य

लग जाते हैं अपने जीवन के सँचालन में

सब ने बना रखे हैं

अपनी अपनी जरूरतों के दायरे



उस दायरे के अन्दर

उसे सब कुछ चाहिए

उसके लिए वो घुस सकता है

दूसरे के दायरे में भी

क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे का भोजन है

क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व को खतरा है

जानवर का दायरा छोटा है

जिसकी जरूरत है सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा

आदमी का दायरा सबसे बड़ा

जिसमे समा जाते हैं

बाकी सारे दायरे

क्योंकि आदमी की भूख और जरूरतें अनंत हैं

जिसमे सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा ही नहीं

एक लम्बी फेहरिस्त है चीजों की -

जैसे की

लोमड़ी की खाल से बना फर का कोट

सांप की चमड़ी से बने जूते

खरगोश की आँखों पर आजमाए गए शृंगार के साधन

हिरन की खाल से बने गलीचे

हाथी के दांत की सजावट

शेर के मुह का दीवार-पोश

इतना ही नहीं

फेहरिस्त और भी लम्बी है

परमाणु बम - वृहद् नर संहार के लिए

रसायन - मनुष्य को लाचार बनाने के लिए

बारूद - विस्फोट में लोगों को उड़ा देने के लिए

अनंत है फेहरिस्त

मनुष्य नाम के जानवर की जरूरतों की



इस बड़े दायरे से बाहर सिर्फ एक दायरा है

ईश्वर का दायरा

निरंतर कोशिश करता है

जिस में घुस जाने की इंसान

कभी अंतरिक्ष में घुस कर

कभी जीव की रचना -

उन नियमो के बाहर जाकर कर के

या फिर शायद

यह भी मनुष्य की एक कपोल कल्पना है

अपने दायरे से बाहर जो कुछ है -

उसे वो ईश्वर कह देता है

धीरे धीरे अपना दायरा बड़ा बनाता जाता है

और उसका दायरा छोटा

फिर भी डरता है उससे

क्योंकि वो - सिर्फ वो

आदमी को उसका कद याद दिलाता है

कभी भूकंप से , कभी सुनामी से ,

कभी कैंसर से , कभी एड्स से

और तब ये लाचार इन्सान

गिड़गिडाता है भीख मांगता है

अपने घुटनों पर गिर कर

ईश्वर भी चकित है

अपने इस निर्माण पर

क्योंकि वो देखता है

उस विध्वंस को

जो धर्म के नाम पर करता है इंसान

कुछ और नहीं तो

ईश्वर को ही भागीदार बना कर .

बुधवार, 10 नवंबर 2010

चाहतें एक आम आदमी की

मुझको कुछ सामान चाहिए
थोडा सा सामान चाहिए

मुझको दौलत नहीं चाहिए
मुझको इज्जत नहीं चाहिए
नहीं चाहिए हीरे मोती
मुझको शोहरत नहीं चाहिए

राज पाट की चाह नहीं है
ठाठ बाट की चाह नहीं है 
नहीं चाहिए तोप तमंचे 
मार काट की चाह नहीं हैं 

मुझे पांव  भर जगह चाहिए 
मुझे सांस भर हवा चाहिए 
मुझे चाहिए प्यार सभी का 
मुझे उम्र भर दुआ चाहिए 

मुझे हाथ भर काम चाहिए 
थोडा सा विश्राम चाहिए 
मुझे चाहिए नींद रात भर 
आँख मूँद कर राम चाहिए 

थोडा सा आकाश चाहिए 
वर्षा का आभास  चाहिए 
इन्द्रधनुष का मेरा टुकड़ा 
तकने का अवकाश चाहिए 

मुझको मेरे ख्वाब चाहिए 
अन्तर में इक आग चाहिए 
मेरे आँगन की बगिया में 
गेहूं नहीं गुलाब चाहिए 

जीवन का कुछ अर्थ चाहिए 
नहीं जिंदगी व्यर्थ चाहिए 
औरों के कुछ काम आ सकूं 
इतना स्वयं समर्थ चाहिए

सौदे में ईमान चाहिए 
वाणी गुड की खान चाहिए 
नहीं चाहिए झूठी इज्जत 
मुझको स्वाभिमान चाहिए 

मुझको कुछ सामान चाहिए 
थोडा सा सामान चाहिए 
जीवन को जीवित रखने को   
इतना सा सामान चाहिए






बुधवार, 3 नवंबर 2010

रोशनी का दिन

आ जिंदगी , चल बैठ कहीं गुफ्तगू करें

दिल को सुकून मिल सके ये जुस्तजू करें


मुश्किलों से भाग कर हम जायेंगे कहाँ

आ मुश्किलों का सामना हो रूबरू करें


देखें किसी को बांटते औरों के ग़म कभी

चल हम भी उनसे सीख कर वो हुबहू करें


दीपावली का दिन है , चिराग जलाएं

दिल में मुकम्मल रोशनी की आरजू करें

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

दीपावली का दिया

टिमटिमाते हैं - असंख्य दिए मिटटी के
अमावस्या की रात को जगमगाते हैं
नजर आती है अनेक कतारे रौशनी की
मुंडेरों,खिडकियों,चौखटों पे जुगनू झिलमिलाते हैं

जैसे जैसे रात गहराती है
कांपती है कुछ दीयों की लौ
कुछ देर फडफडाती है
फिर खो जाती है वो

दिया मिटटी का वही है, वैसा ही है
लेकिन ख़त्म हो गया है तेल उसका
जिसमे डूबी बाती देती थी रौशनी
बस ख़त्म हो गया है खेल उसका

कुछ दियों में तेल शेष था
लेकिन हवा का झोंका भी तेज था
लौ लडती रही अंत तक यथाशक्ति
अंततः हार कर बुझ गयी लौ उसकी

हम भी तो दीपक हैं मिटटी के
अमावस्या है उम्र हमारी
पृथ्वी है घर द्वार मुंडेरों सी
जिस पर बिखरी मानवता सारी

जीवन का दुःख ही अँधेरा है
दुःख की रातें कितनी काली है
सुख के क्षण जीवन में रौशनी से
जिनसे होती दिवाली है

सांसे हैं तेल , हम दियों का
आत्मा है लौ जगमगाती है
जीवन के संघर्ष मुश्किलें सारी
हवा सी - जो लडती बुझाती है

पर दिया कभी प्रश्न नहीं करता
क्यों भेजा इन निर्मम हवाओं को
इतने मासूम , लाचार और नन्हे हैं हम
क्यों होने दिया इन खताओं को

दिया जानता है कर्त्तव्य अपना
पल पल जलना, पल पल लड़ना
जब तक अस्तित्व है उसका
तब तक सब आलोकित करना

मिटटी हैं हम , मिटटी है वो
क्षणभंगुर हम, क्षणभंगुर वो
जीवन का पाठ पढाता है
जब तक जलती रहती है लौ

आओ दिवाली मनाएं हम
जब मिटटी के दीपक जलाएं हम
एक क्षण को आँखें मूँद ले तब
और दीपक को जीवन में लायें हम

रविवार, 31 अक्टूबर 2010

एक बरस और बीत गया

एक बरस और बीत गया
जीवन का घट थोडा और रीत गया

भागता समय ऐसे . एक एक क्षण जैसे
आँखों के आगे से बन अतीत गया
एक बरस और बीत गया

कुछ खट्टी, कुछ मीठी , परतें हैं जीवन की
हार कर गया कोई , कोई जीत गया
एक बरस और बीत गया

जाने पहचाने से, अपने अनजाने से
मिल कर परायों सा कोई मीत गया
एक बरस और बीत गया

मरते हम दिन दिन है ,जीते हम गिन गिन हैं
सांसों की गिनती का एक गीत गया
एक बरस और बीत गया

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

छंदों में मात्राओं का विज्ञान

हम कवितायेँ लिखते और पढ़ते हैं . कुछ कवितायेँ छंद बद्ध होती हैं तो कोई स्वछन्द . छंद बद्ध कवितायेँ किसी नियम में बंधी होती है, जिसकी वजह से उस कविता का पढना एक विशेष लयात्मकता में ढल जाता है ; जब कभी कविता अपने छंद का नियम तोडती हैं , तो उसे उस लय में पढ़ पाना मुश्किल होता है. यहाँ हम चर्चा करेंगे सिर्फ छंद बद्ध कविताओं की , जैसे की दोहा, चौपाई , सोरठा , ग़जल वैगरह. इसके अलावा भी बहुत से अपरिभाषित छंद हो सकते हैं, लेकिन आवश्यता होती है , उस छंद की नियम बद्धता की.
घबराइए मत , मैं कोई बहुत मुश्किल चर्चा नहीं कर रहा हूँ , बल्कि एक मुश्किल विषय को आसानी से समझ पाने का नुस्खा बता रहा हूँ . कविता, ग़जल, गीत - सब का एक मीटर होता है . और उस मीटर का नाप होता है मात्राएँ . किस छंद में कितनी मात्राएँ होती हैं, ये निश्चित होता है . उर्दू कविता में मात्राओं के इस मीटर का नाम बहर होता है कवि या शायर जाने अनजाने उन मात्राओं की गिनती को समान रखता है . आइये इस विज्ञान को समझाने का प्रयत्न करते हैं उदाहरण के द्वारा -

एक दोहा लेते हैं -

रहिमन देख बड़ेन को , लघु न दीजिये डारि !
जहाँ काम आवे सुई , कहाँ करे तलवारि !!

आइये इसकी मात्राओं की गिनती करें . गिनती के नियम हैं -

१. प्रत्येक बिना मात्रा का अक्षर = १ मात्रा ; जैसे - र


२. प्रत्येक आ की मात्रा वाला अक्षर = २ मात्रा ; जैसे का


३. प्रत्येक छोटी इ की मात्रा वाला अक्षर = १ मात्रा ; जैसे रि


४. प्रत्येक बड़ी ई की मात्रा वाला अक्षर = २ मात्र ; जैसे दी


५. प्रत्येक छोटे उ की मात्रा वाला अक्षर = १ मात्रा ; जैसे सु


६. प्रत्येक बड़े ऊ की मात्रा वाला अक्षर = २ मात्रा ; जैसे पू


७. प्रत्येक ए की मात्रा वाला अक्षर = १ या २ मात्रा@ ; जैसे डे


८. प्रत्येक ऐ की मात्रा वाला अक्षर = २ मात्रा ; जैसे जै


९. प्रत्येक ओ की मात्रा वाला अक्षर = २ मात्रा ; जैसे को


१०. प्रत्येक औ की मात्रा वाला अक्षर = २ मात्रा ; जैसे लौ


११. प्रत्येक बिंदी वाला अक्षर = २ मात्रा ; जैसे जं


१२. प्रत्येक विसर्ग वाला अक्षर = २ मात्रा ; जैसे क:


१३. प्रत्येक डेढ़ अक्षरों का योग = २ मात्रा ; जैसे ल्ल

[@ विशेष : साधारणतया इन मात्राओं की गिनती ऊपर दिए नियमों के अनुसार होती है, लेकिन अपवाद भी होते हैं. वास्तव में मात्राओं का सम्बन्ध प्रत्येक अक्षर के उच्चारण से सम्बन्ध रखता है. इसलिए बड़ी मात्राओं (दीर्घ मात्राएँ ) को २ मात्रा मानते हैं और छोटी मात्राओं ( लघु मात्राएँ ) को १ मात्रा मानते हैं . लेकिन कई बार बड़ी मात्राओं को पढने में जल्दी पढ़ा जाता है ताकि कविता की लय बनी रहे; उसी तरह कभी कभी छोटी मात्राओं पर भी जरा रुक के पढना पड़ता है खास कर ऐ की मात्र में ये अक्सर होता है ; ऐसी स्थिति में मात्राओं के योग में ऊपर लिखे नियमों से भिन्नता आने की सम्भावना है .समझाने के लिए जहाँ भी छोटी ऐ की मात्र २ गिनी जायेगी उसे हम रेखांकित कर देंगे .ऊपर लिखे नियमों को हम आधार मान सकते हैं . ]


आइये इन नियमो के आधार पर जरा गिन कर देखें की ऊपर लिखे रहीम के दोहे में कितनी मात्राएँ हैं . दोहे में चार पद है . पहले और तीसरे पद में एक अर्ध विराम यानि कोमा है ; दुसरे और अंतिम पद के बाद पूर्ण विराम है . हम मात्रा गिनेंगे पद के अनुसार . दोहे को अक्षर के अनुसार जरा बाँट देते हैं , इस प्रकार -

र हि म न दे ख ब ड़े न को , ल घु न दी जि ये डा रि !


ज हाँ का म आ वे सु ई , क हाँ क रे त ल वा रि !!

अब हर अक्षर की मात्रा तय करते हैं और उस अक्षर के ऊपर लिख देते हैं , ऊपर लिखे नियमों के अनुसार -


१   १ १ १   १ १    १ २ १ २ ( कुल योग =१३ मात्रा )


र हि म न दे ख ब ड़े न को ,


१ १ १     २ १    २   २    १       ( कुल योग =११ मात्रा)


ल घु न दी जि ये डा रि !


१   २   २    १   २   २   १   २       ( कुल योग =१३ मात्रा )


ज हाँ का म आ वे सु ई ,


१    २ १ २ १    १ २   १           ( कुल योग =११ मात्रा )


क हाँ क रे त ल वा रि !!

इस उदाहरण से ये बात समझ में आ गयी कि किसी भी दोहे छंद में पहले और तीसरे पद में मात्राओं का योग १३ होगा और दुसरे और चौथे पद की मात्राओं का योग ११ होगा . दूसरी बात ये की दूसरे और चौथे पदों में तुकबंदी होती होती है जैसे की यहाँ डारि और वारि . आइये एक और दोहा लेकर उस पर इस बात को जांच कर देखें . कबीर का एक प्रसिद्द दोहा -

काकड़ पाथर जोर के, मसजिद लई बनाय !
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय !!

आइये उसी प्रकार विच्छेद करते हैं इस दोहे का भी और गिनते हैं मात्राओं को -

२    १ १   २   १ १   २ १   २      ( कुल योग =१३ मात्रा )


का क ड़ पा थ र जो र के,


१   १   १    १ १ २   १ २   १      ( कुल योग =११ मात्रा )


म स जि द ल ई ब ना य !


२    १ १   १   २     २    २ २        ( कुल योग =१३ मात्रा )


ता च ढ़ मु ल्ला बां ग दे ,


  २    १ १    २ १ २     १ २   १   ( कुल योग =११ मात्रा )


क्या ब हि रा हु आ खु दा य !!

इस प्रकार पुष्टि हो गयी हमारी गणना की . एक उदाहरण एक चौपाई का लेकर गिनें . जैसा की नाम से पता चलता है चौपाई, इस छंद में भी चार पद होते हैं , विशेषता ये है कि इस छंद में चारों पदों की मात्राओं का योग एक समान होता है . हम सब के लिए चौपाई का अर्थ होता है तुलसीदासजी की रामचरितमानस . उदाहरण लेते हैं उनकी रचना रामचरितमानस से -

सुनत राम अभिषेक सुहावा । बाज गहागह अवध बधावा ॥
राम सीय तन सगुन जनाए । फरकहिं मंगल अंग सुहाए ॥२॥

और अब मात्राओं की गिनती -

१   १ १    २ १ १    १    २ १    १ २ २         ( कुल योग =१६ मात्रा )


सु न त रा म अ भि षे क सु हा वा ।


२   १    १ २ १   १ १    १ १ १ २    २           ( कुल योग =१६ मात्रा )


बा ज ग हा ग ह अ व ध ब धा वा ॥


२   १   २   १   १ १   १   १ १   १   २ २            ( कुल योग =१६ मात्रा )


रा म सी य त न स गु न ज ना ए ।


१   १ १    १ २   १ १    २ १   १ २ २             ( कुल योग =१६ मात्रा )


फ र क हिं मं ग ल अं ग सु हा ए ॥२॥

इस उदहारण से हम दो बातें सीखते हैं , पहली कि चौपाई में भी चार पद होते हैं और हर पद कि मात्राओं का योग हमेशा १६ होता है . दूसरी बात ये कि तुकबंदी पहले और दूसरे पदों में तथा तीसरे और चौथे पदों में होती है . आइये एक और उदहारण से इस बात को देखें -

जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा । सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा ॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा । करत राम हित मंगल काजा ॥१॥


और आइये अब गिने मात्राओं को -

२     १ २    १ १    १   २    १ १    २    २       ( कुल योग =१६ मात्रा )


जो मु नी स जे हि आ य सु दी न्हा ।


२    १   १   २    १   १ १ १   १   १    २    २    ( कुल योग =१६ मात्रा )


सो ते हिं का जु प्र थ म ज नु की न्हा ॥


१   २    २   १   १ १  २   १ १   २   २             ( कुल योग =१६ मात्रा )


बि प्र सा धु सु र पू ज त रा जा ।


१   १ १   २ १   १   १   २   १   १    २   २       ( कुल योग =१६ मात्रा )


क र त रा म हि त मं ग ल का जा ॥१॥

[ ऊपर दिए उदहारण में दो स्थानों पर ए की मात्रा है, लेकिन उसका उच्चारण बहुत जल्दी बोल कर होता है; शब्द हैं जेहि और तेहिं , इसलिए दोनों स्थानों पर जे और ते की एक मात्रा गिनी है. दोनों ऐसी मात्राओं को अलग रंग में रेखांकित कर के बताया है .]

इसी तरह और किसी कविता का मीटर भी हम समझ सकते हैं . एक उदाहरण लेते हैं एक छंद बद्ध कविता का . दुष्यंत कुमार की एक मशहूर रचना के पहले और आखिरी बंद -

हो चुकी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए !


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

और अब मात्राओं की जल्द गिनती -

२   १+२ २  २+१ १+२+१ २    १+१+१+२ २+१+१     (= २५ )
हो चुकी है पीर    पर्वत    सी पिघलनी     चाहिए


१+१ १+२+१+१ १   २+२ २+२  १+१+१+२ २+१+१   (=२५)
इस    हिमालय    से कोई गंगा निकलनी    चाहिए !


१+२ २+२   १ १+२ २   १+२ २+२ २ १+२                (=२५)
मेरे    सीने में नहीं तो तेरे   सीने में सही


२   १+२ २    २+१ २+१+१ २+१ १+१+२ २+१+१       (=२५)
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी    चाहिए

इस प्रकार हम समझ सकते हैं की कविता चाहे किसी भी छंद की हो , उसका मीटर या बहर ही उसे गेय या लयात्मक बनाता  है . एक भी मात्रा की गड़बड़ होने से उसमे एक लंगड़ापन आ जाएगा. जब आप भी कोई कविता लिखें तो आप देख लेवें की आपकी मात्राओं की गणना  में समानता है या नहीं . या फिर आपको अपनी किसी रचना को ढंग से पढने में कठिनाई आ रही हो तो एक बार मात्राओं को गिन कर देख लेवें की कहीं मात्राओं में भिन्नता तो नहीं .

ये सारी जानकारी आपको मैं कुछ उपलब्ध स्त्रोत्रों से और कुछ अभ्यास के आधार पर दे रहन हूँ . त्रुटि पायें तो कृपया टिपण्णी करें .

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

मन की भाषा

शब्दों  की  भाषा से बढ़कर एक भाषा होती है
वह भाषा मन के भावों की परिभाषा होती है

हर शब्द नहीं बोला, समझा , समझाया जाता है
इक शब्द उतर कर आँखों में सब कुछ कह जाता है

है नहीं जरूरत मन की भाषा को तो वैया-करण की
है नहीं जरूरत शब्दकोष के साधन और शरण की

सुख की भाषा, दुःख की भाषा, भाषा क्रोधित भावों की
मौन प्रेम की अभिव्यक्ति , आंसू - आहत घावों की

यदि शब्द नहीं होते जीवन में शायद अच्छा होता
अपशब्दों की भाषा से बचता मानव बच्चा होता

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

परिपक्व प्यार

जीवन का प्रवाह कुछ ऐसा मोड़ लेता है
आने वाले सभी परिवर्तनों से खुद को जोड़ लेता है
मुझे ही देखो न -
मैं अपने आप को आईने में देख जुल्फें संवारता था
घंटों खुद का व्यक्तित्व निहारता था

और अब -
आइना तो वही है जुल्फें घट गयी
थोड़ी काली थोड़ी सुफेद दो रंगों में बाँट गयी
कोशिश करता हूँ कि सब काले रंग में रंग जाये
इसके पहले की सारी सुफेद रंग में रंग जाये
और वो -
सुबह उठ के मुझे प्यार से उठाने की जगह
जोर से पूछती है - सैर के लिए उठो
और मैं कोई बहाना सोचूँ उसके पहले
अगला आदेश - चलो, उठो, खड़े हो जाओ

और फिर -
ये कहने कि जगह - आज दफ्तर न जाओ तो ?
वो ये कहती है - दफ्तर नहीं जाना क्या ?
मैं जब कहता - डार्लिंग , एक प्याला चाय मिलेगी
संबोधन से खुश होकर चाय पेश करने की जगह
चाय से ज्यादा गरम हो जाती है -
बहुत हो गयी चाय , चलो नहाओ .
और लंच पर -
उनका फोन अब भी आता है
लेकिन ये पूछने की  जगह कि खाना कैसा लगा
ये बताने के लिए
कि दवा की पुडिया छोटी डिबिया में रखी है
खाने के बाद याद कर के ले लेना

और शाम को -
जब घर पहुँचता हूँ ,
वो ये नहीं कहती की चलो कहीं घूमने चलें
बल्कि ये कहती है -
बहुत थक गए होगे ,थोडा आराम कर लो ,
मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाती हूँ

डिनर पर -
ये कहने की जगह की चलो एक ही थाली में खाते हैं
कहती है , तुम खाओ , मैं गरम फुल्के बनाती हूँ

और बिस्तर पर -
मैं मेरी थकान के साथ सोने की कोशिश करता हूँ
वो बिना किसी शिकायत के
मेरे बालों में अंगुलियाँ फिराती है

सोचता हूँ - क्या बदल गया ?
क्या वो प्यार नहीं रहा
क्या वो गर्मजोशी ख़त्म हो गयी
लेकिन मेरा चिंतन मुझे बताता है -
यह ही असली प्यार है
मुझे जल्दी उठा  कर सैर पर भेजना
ज्यादा चाय न पीने देना
दिनचर्या में नियमितता रखवाना
समय पर दवा याद दिलाना
मेरी थकान के सामने खुद की भूल जाना
गरम फुल्के अपने हाथों से बना कर खिलाना
नींद के लिए मुझे वो प्यार भरा स्पर्श देना
यही तो है परिपक्व प्यार
जो जीवन की सांझ में
अकेलेपन को भगाता है

वो मुझे तब से भी बहुत अधिक प्यार करती है

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

आओ फिर एक बार चले गाँव

आओ चलें - अपने गाँव
जहाँ है बचपन की ठंडी छाँव

गाँव के उस पुराने प्राइमरी स्कूल की तरफ
जिसके नाम के भी मिट गए थे हरफ
जहाँ हर रोज सुबह हम घर से लाते थे
और अपने हाथों से बिछाते थे
एक लम्बी सी दरी
स्याही के धब्बों से भरी
उस बूढ़े पीपल के पेड़ के नीचे
दीवार पर रंगे ब्लैक बोर्ड के पीछे
और फिर शुरू हो जाती थी पाठशाला
रोज का मिर्च मसाला
मास्टरजी के हाथ में छड़ी का लहराना
और हमारा जोर जोर से चिल्लाना
दो एकम दो......दो दूनी चार .......
दो तीये छः.....दो चौके आठ ....

थोड़ी दूर और चलें
चल कर मिलें
जोहड़ से गाँव की
मचलते पाँव की
जहाँ लगाते थे छलांग
होती हवा में टाँग
पास ही बनी मुंडेर से
इंटों के बने घेर से
हमेशा यही फ़िराक
की बनना है तैराक
बिना किसी सोच के
बिना किसी कोच के

और वो नीम का घना दरख़्त
अन्दर से नर्म बाहर से सख्त
कडवाहट के बीच लगती थी
पीली हो पकती थी
मीठी निमोली
भर भर के झोली
जिसका कोई मोल नहीं था
जिसका कोई तोल नहीं था
आज नहीं मिलती किसी शहरी बाज़ार में
रुपैये, डॉलर या पौंड के व्यवहार में

और वहीँ पास में वो पुराना शिवाला
जिसके पीछे थी गौशाला
जिसकी आरती में हम बैठते थे
आँखे बंद कर भक्ति में पैठते थे
भगवान से ज्यादा पुजारी के लिए
मखानों और बताशों की रोजगारी के लिए

और शाम को वो घर को लौटना
नंगे पावँ मिटटी में लोटना
कभी भैंसों की पीठ पर
कभी ऊंटों की रीढ़ पर
कभी बछड़ों की पूँछ पकड़ कर
कभी पिल्लों को बाँहों में जकड कर
मिटटी से भरे बालों को खुजलाते
टूटी फूटी भाषा में कुछ न कुछ गाते

वो दृश्य यादों से न जाते हैं
वो दिन कितने याद आते हैं
आओ फिर एक बार चले गाँव
और ढूंढें अपना ठांव

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

इंसान कुछ नहीं

भगवान की दुनिया में इंसान कुछ नहीं
इंसान की तो छोडिये , भगवान कुछ नहीं

धनवान की है शोहरत धनवान की है इज्जत
विद्वान कुछ नहीं यहाँ , गुणवान कुछ नहीं

"अतिथि देवो भव" जिस देश का चलन था
घर आज कोई आया मेहमान कुछ नहीं

पैसा मिले तो पंडित, पैसा मिले तो पूजा
पैसा नहीं हो पास तो जजमान कुछ नहीं

कन्या बहुत है सुन्दर, कन्या पढ़ी लिखी है
जो दहेज़ न मिले तो , खानदान कुछ नहीं

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

जीवन भी चिता है

जा रहा हर एक पल
बन रहा हर 'आज' कल
श्वास श्वास मर रहा
बूँद बूँद भर रहा
जीवन का घट है
भर कर मरघट है  
बीत रहा वक़्त है
सूख रहा रक्त है
पोर पोर ढल रहा
कतरा कतरा जल रहा
जिंदगी है कट रही
यूँ कहो सिमट रही
वक़्त हमें पढ़ रहा
रक्त चाप बढ़ रहा
धोंकनी धधक रही
अग्नि सी भभक रही
रिश्तों के झुण्ड में
जीवन के कुंड में
हविषा बन जल रहा
खुद को ही छल रहा
मरने से डरता है
हर घड़ी जो मरता है
भोला इंसान है
यूँ ही परेशान है
जिस चिता से डर रहा
सब प्रयत्न कर रहा
मृत्यु बस चिता नहीं
जीवन कविता नहीं
जीवन भी चिता है
मृत्यु भी कविता है

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

जन्मदिन

जन्मदिन - एक ख़ुशी का दिन
परिवार के लिए एक उत्सव
मित्रों के लिए एक दावत
बुजर्गों के लिए - अवसर आशीष का
बच्चों के लिए उपहारों की प्रतीक्षा
सब के लिए एक आनंदोत्सव

लेकिन जन्मदिन - स्वयं के लिए क्या ?
अपने आज तक के जीवन पर दृष्टिपात
अपने आप के साथ बिताने का समय
जीवन की उपलब्धियों पर एक नजर
जीवन की कमियों का आत्म चिंतन
जन्मदिन - एक आत्मविश्लेषण का दिन

जन्मदिन - जीवन की तलपट का दिन
हानि लाभ , सम्पति और जिम्मेवारियों का ब्यौरा
और इस हानि लाभ के ब्योरे में क्या कुछ ?
मात्र आर्थिक आदान प्रदान नहीं

अपने जन्मदिन पर बनायें ऐसा एक दस्तावेज
जिसमे जमा खर्च हो -
न सिर्फ आर्थिक लेन देन का
बल्कि सामाजिक, पारिवारिक ,शारीरिक
इतना ही नहीं धार्मिक और आत्मिक हानि लाभ का

यदि हमने कड़ी मेहनत कर के पैसा कमाया
तो आर्थिक लाभ , शारीरिक हानि लेकिन आत्मिक लाभ

यदि हमने जुए या लोटरी में पैसा कमाया
तो आर्थिक लाभ लेकिन आत्मिक हानि

यदि हमने किसी को कष्ट देकर कमाया
आर्थिक लाभ, मानसिक और धार्मिक हानि

किसी गरीब की मदद की हो तो
आर्थिक हानि , लेकिन मानसिक, सामाजिक, आत्मिक और धार्मिक लाभ

इस लेन देन के अलावा तलपट में लिखें
जीवन की मुश्किलों से संघर्ष
हर स्थिति का सामना सहर्ष
शारीरिक ड़ेप्रीसियेसन ,
आत्मबल का अप्रिसियेसन
संतान की योग्यता में उतार चढाव
माता पिता के जीवन में संतोष या असंतोष
पत्नी का प्रेम , पत्नी के लिए आपका प्रेम
सामाजिक सक्रियता, व्यावहारिक लोकप्रियता
अपने आप में परिवर्तन ,
अब तक का अपना जीवन

हर उपलब्धि के लिए खुशियाँ मनाइए
स्वयं अपनी पीठ थपथपाइए
अपनी कमियों के लिए बनायें निर्देश
स्वयं को ही दे आदेश
आने वाले वर्षों का ब्यौरा और सुधार ले
इसी तरह अपना पूरा जीवन संवार लें

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

राम भरोसे

भारत ने
ना जाने
क्यों ले ली
क्यों झेली
नयी बला
वजह बिला
ये आफत
ये सांसत
कोमनवेल्थ
बिगड़ा हेल्थ
शासन का
प्रशासन का

पहले जो
थे आगे
अब पीछे
हैं भागे
चढ़ गाडी
कलमाड़ी
धड़का दिल
एम. एस. गिल
नाक कटी
दिल्ली की
उडी हंसी
"शिल्ली" की

दुनिया में
थू थू है
दिल्ली में
बदबू है
कई करोड़
दिए मरोड़
खाया फंड
क्या दे दंड
खेलों का
क्या होगा
झमेलों का
क्या होगा

मनमोहन
सोच रहे
दाढ़ी को
नोच रहे
चिल्लाती
दुनिया है
पर खामोश
सोनिया है
उड़े सभी के
तोते है
अब सब राम-
भरोसे है

रविवार, 26 सितंबर 2010

कहते रहते लोग

लेना देना नहीं किसी का , फिर भी कहते लोग
औरों के जीवन के मसले , चुप ना रहते लोग

मेरा जीवन मेरा अपना क्या खाया क्या पहना
मैं खुश हूँ मैं जैसा भी हूँ , क्यों नाखुश हैं लोग

मैं बीमार पड़ा तो नुस्खे मेरे पास बहुत है
हर कोई अपना दे जाता , देने आते लोग

मेरे घर में कलह हुई तो मैंने उसे संभाला
फिर भी कलह बढ़ाने आते समझदार कुछ लोग

खूब कहा शायर ने प्यारे कुछ तो लोग कहेंगे
क्योंकि उनका काम है कहना , कहते रहते लोग

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

मेरी सबसे उम्दा ग़जल

मेरी कविताओं की डायरी में
एक पन्ना खाली है
उस पन्ने पर लिखी है
मेरे जीवन की सबसे उम्दा ग़जल
जिसे तुम नहीं पढ़ पाओगे
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
रोशनाई से
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
हर्फों में
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
हिंदी या उर्दू में
वो लिखी गयी थी
दर्द की कलम से
वो लिखी गयी थी
आंसुओं की सियाही से
वो लिखी गयी थी
रात के अँधेरे से
लेकिन तुम्हे वो दिखाई नहीं देगी
क्योंकि उस ग़जल के हर्फ़
पढ़े नहीं
महसूस किये जाते हैं ;
मेरी सबसे उम्दा ग़जल
सिर्फ मेरे लिए है दोस्त
जिसे मैं अक्सर पढता हूँ

बुधवार, 22 सितंबर 2010

बोलते शब्दों की कविता

[ एक प्रयोगात्मक कविता है . टिपण्णी स्वरुप आप भी इसी तरह की चंद पंक्तियाँ जोड़ सकते हैं. मजा आएगा . कोशिश करें. ]

चिलचिलाती धूप
खिलखिलाता बचपन
पिलपिलाता आम
झिलमिलाता आँगन

भिनभिनाती मक्खी
सनसनाती हवा
पिनपिनाती बुढिया
गुनगुनाती फिजा

सुगबुगाती भीड़
दनदनाती गोली
कुलबुलाते कीड़े
फुसफुसाती बोली

चहचहाते पाखी
लहलहाती फसल
जगमगाते दिए
बड़बडाती अकल

तमतमाता चेहरा
चमचमाता घर
लड़खड़ाते कदम
फडफडाते पर

गड़गड़ाते बादल
कडकडाती बिजली
थरथराते होंठ
चुलबुलाती तितली

डगमगाता शराबी
चुहचुहाता तन
लपलपाती जीभ
सकपकाता मन

रविवार, 19 सितंबर 2010

लफंग बन गए हैं दबंग आजकल

सीमा पे अमन देश में है जंग आजकल
घुसपैठिये बना रहे सुरंग आजकल

ऊंचाइयों पे उड़ने का हम ख्वाब देखते
अपने ही अपनी काटते पतंग आजकल

बाहर के दुश्मनों से हम चाहे निपट  भी लें
अपने ही गिरेबान में भुजंग आजकल

जितने गदर्भ देश में , ओहदों पे मस्त है
धोबी के घाट पर खड़े तुरंग आजकल

संस्कार ख़त्म हो चले , अधिकार बच गए
अच्छे नहीं समाज के रंग-ढंग आजकल

छिछोरे - युवा पीढ़ी के आदर्श बन गए
लफंग बन गए हैं दबंग आजकल

शब्दार्थ
[ गदर्भ = गधा / तुरंग = घोडा ]

बुधवार, 15 सितंबर 2010

वैधव्य

कोई चला गया है

सब कुछ बदल गया है ,

अनहोनी हो रही है

वो छड़ी रो रही है ,

आराम कुर्सी थक गयी

आराम करते करते ,

दरवाजा थक गया

इन्तेजार करते करते ,

चश्मा धुंधल गया

आँखों से लड़ते लड़ते ,

पन्ना पलट गया

उन अँगुलियों को पढ़ते ,

गर्मी से परेशान है

ठन्डे पानी का घड़ा ,

थक गया है खम्भा

वर्षों से यूँ खड़ा ,

फिसल रही है काई

अपनी ही फिसलन में ,

खुजला रही दीवारें

खुद अपनी उतरन में ,

चौंधिया गया दिया

अपनी ही लपट से,

सहमा हुआ अँधेरा

खुद अपने कपट से ,

दबा पड़ा दूध

मोटी मलाई से ,

निशान दिख रहे

सूनी कलाई पे ,

क्या आज हो गया है

क्या राज हो गया है ,

श्रृंगार खो रहा है

वैधव्य रो रहा है .

शनिवार, 11 सितंबर 2010

अंतर की ग्रंथियों को खोलो कभी कभी

[ जैन समाज में एक बहुत अच्छी प्रथा है . वर्ष में एक दिन सभी एक दुसरे स मिल कर हाथ जोड़ कर कहते हैं - " मिच्छामी दुक्कड़म " . इस का अर्थ होता है की इस पूरे वर्ष में मेरे किसी भी कार्य या वचन से जाने या अनजाने रूप से आपका दिल दुख हो तो मुझे क्षमा करें . इसी भावना पर आधारित है मेरी ये नयी ग़जल .]



मन को उलट पलट के टटोलो कभी कभी
अंतर की ग्रंथियों को खोलो कभी कभी

कुछ घाव छोटे छोटे नासूर बन न जाये
मरहम लगाके प्यार की धो लो कभी कभी

बातों पे खाक डालो जो चुभ गयी थी दिल में
कुछ जायका बदल के बोलो कभी कभी

कुछ अपने गिरेबां में भी झांक कर देखो
और अपनी गलतियों को तोलो कभी कभी

मन भर ही जाए जो गर अंतर की वेदना से
कहीं बैठ कर अकेले रो लो कभी कभी

शनिवार, 4 सितंबर 2010

मास्टरजी

[ अठारहवीं सदी के अंग्रेजी भाषा के एक प्रसिद्ध कवि ओलिवर गोल्डस्मिथ की एक मशहूर कविता थी - विलेज स्कूल मास्टर . उसी कविता को थोड़े भारतीय परिपेक्ष्य में प्रस्तुत कर रह हूँ , हिंदी में . कविता के नीचे प्रस्तुत है मूल अंग्रेजी की कविता भी . पढ़ कर प्रतिक्रिया जरूर देवें .  ]

    मास्टरजी


एक कच्चे मकान में बसा
गाँव का वो स्कूल
जिसके अहाते में लगे थे
रंग बिरंगे फूल

पढ़ते थे गाँव के बच्चे
यहाँ आकर हर रोज
खेल कूद मस्ती
और खूब मौज

पढ़ाते थे उनको
एक बूढ़े से मास्टरजी
भूगोल इतिहास हिंदी
गणित और अंग्रेजी

कभी थे नरम
कभी थे कठोर
डरते थे उनसे
पढने के चोर

जिस दिन होता उनका 
मूड कुछ ख़राब
लड़के फुसफुसाते
गुस्से में है जनाब

उनको हंसाते
किस्से सुनाते
नकली हंसी हँसते
जब मास्टरजी सुनाते 

गाँव सारा मानता था
उनको धुरंधर
उन सा नहीं था कोई
गाँव के अन्दर

क्या लिखना क्या पढना
जोड़ना घटाना
खेतों के बीघे
नाप कर बताना

बातों में उनका
नहीं कोई सानी
तर्क करने में
थे वो लासानी

करते थे सारे
आश्चार्य इतना
छोटी सी खोपड़ी में
ज्ञान भरा कितना

जब तक रहे, किया
एकछत्र शासन
हो गए रिटायर
ख़त्म अनुशासन


The Village Schoolmaster

Beside yon straggling fence that skirts the वे
With blossom'd furze unprofitably gay,
There, in his noisy mansion, skill'd to rule,
The village master taught his little school;
A man severe he was, and stern to view,
I knew him well, and every truant knew;
Well had the boding tremblers learn'd to trace
The days disasters in his morning face;
Full well they laugh'd with counterfeited glee,
At all his jokes, for many a joke had he:
Full well the busy whisper, circling round,
Convey'd the dismal tidings when he frown'd:
Yet he was kind; or if severe in aught,
The love he bore to learning was in fault.
The village all declar'd how much he knew;
'Twas certain he could write, and cipher too:
Lands he could measure, terms and tides presage,
And e'en the story ran that he could gauge.
In arguing too, the parson own'd his skill,
For e'en though vanquish'd he could argue still;
While words of learned length and thund'ring sound
Amazed the gazing rustics rang'd around;
And still they gaz'd and still the wonder grew,
That one small head could carry all he knew.
But past is all his fame. The very spot
Where many a time he triumph'd is forgot.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

परिभाषाएं - तीन नन्ही कवितायेँ

बोर

मैंने यूँही पूछ लिया
क्या हाल चाल है
और वो
विस्तार से बताने लगा
कितना बोर है वो

स्मार्ट

एक खाली टैक्सी  वाले  से
एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछा मैंने
टैक्सी खाली है ?
उसने मेरी बात का फायदा उठा लिया
बोला - नहीं है
और स्पीड बढ़ा कर भाग निकला
स्मार्ट  था

इंटेलिजेंट


टी टी साहब
एक बर्थ मिलेगी ?
नहीं, कोई खाली नहीं है
सर , जाना बहुत जरूरी है
गांधीजी की कसम
उसने मुझे देखा
बोला- ठीक है चढ़ जाइये,
देखते हैं
इंटेलिजेंट था

सोमवार, 30 अगस्त 2010

मुट्ठी भर रेत

क्षण क्षण चिराग जल रहा
हर वक़्त यह तन गल रहा

हर सांस कुछ ले जा रही
हर वक़्त जीवन जल रहा

हर सुबह उगता एक दिन
हर शाम इक दिन ढल रहा

मुट्ठी में भींचा रेत को
सब कुछ मगर फिसल रहा

चेहरे पे झुर्री आ गयी
परतों में एक एक पल रहा

जो भविष्य था वो तो आज है
वो जो आज था हुआ कल रहा

हम तेज कितना भाग लें
पर काल सब निगल रहा

यूँ ही जिंदगी तो खिसक गयी
अब हाथ बैठा मल रहा

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

सैलाब

कोई  चुपके  से  मेरे कानों  में यूँ कुछ कह गया
आँख के पीछे थमा सारा समंदर बह गया

दर्द की नीवों पे कितने पत्थरों के दुर्ग थे
इक जरा जज्बात के झोंके से सब कुछ ढह गया

मैं समझता था कि मेरा ख़त्म सब कुछ हो चुका
फिर भी सीने में धडकता दिल बेचारा रह गया 

सह ना पाया प्यार के जज्बात के दो बोल मैं 
वक़्त के हालात के चुपचाप थप्पड़ सह गया 

रविवार, 22 अगस्त 2010

कमबख्त जिंदगी

हमको कभी हंसाती है कमबख्त जिंदगी
अक्सर मगर रुलाती है कमबख्त जिंदगी


जो चाहते जीना जिंदगी शाम ढले तक
पहले उन्हें भगाती है कमबख्त जिंदगी


जो मांगते हैं मौत जिंदगी के ग़मजदा
घुट घुट उन्हें जिलाती है कमबख्त जिंदगी


हंसने की चाह में हैं , जो रो रो के जी रहे
आंसू उन्हें पिलाती है कमबख्त जिंदगी


जो सरफिरे करते नहीं परवाहे -जिंदगी
सर पर उन्हें बिठाती है कमबख्त जिंदगी

शनिवार, 21 अगस्त 2010

संपूर्ण समर्पण

अनुभूति तुम , अनुभूत मैं
अविभाव तुम, अविभूत मैं


अनुराग तुम , अनुरक्त मैं
आशक्ति तुम, आशक्त मैं


दुर्लब्ध  तुम, उपलब्ध मैं
हो शब्द तुम, निःशब्द मैं


अभिव्यक्ति तुम , अभिव्यक्त मैं
हो भक्ति तुम , हूँ भक्त मैं

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

चल मेरे भाई खेलें खेल

चल मेरे भाई खेलें खेल
लुक्का छिपी छुक छुक रेल
खूब चटपटी बनती है
खेलों की चल खा लें भेल


खेलें चल किरकेट यहाँ
बनते धन्ना  सेठ यहाँ
कुछ तो घपला हुआ जरूर
एक था मोदी एक थरूर
दोनों का क्यों निकला तेल
चल मेरे भाई खेलें खेल


या फिर चल होकी खेलें
महिलाओं को संग ले ले
बन जाये आशिक ऐसे
कोच बने कौशिक जैसे
करें प्रेम का प्यारा मेल
चल मेरे भाई खेले खेल


चल कोई ऊंचा काम करें
दुनिया भर में नाम करें
खेलें खेल खिलाडी सा
नेता हो कलमाड़ी सा
नीचे वाला जाये जेल
चल मेरे भाई खेलें खेल

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

अतीत - एक शाश्वत सत्य

घडी रुक जाती है
समय नहीं रुकता
भागता रहता है निरंतर
क्षण भर को नहीं मध्यांतर

कितनी तेजी से बदलता है
भविष्य वर्तमान में
वर्तमान अतीत में

भविष्य! एक भ्रम है
जो अज्ञात है वो भ्रम है
वर्तमान एक प्रक्रिया है
एक नए अतीत के निर्माण की
जो बीत रहा है
जो व्यतीत हो रहा है
हाँ, वही तो अतीत हो रहा है

अतीत एक शाश्वत सत्य
जो स्थाई है
जो अपरिवर्तनीय है

अतीत-
समय कि शिलाओं पर
घटनाओं के लेख
घटनाएँ जो बन जाती है हिस्सा
हमारे जीवन का
एक एक दृश्य
जो अंकित हो जाते हैं
हमारे स्मृति पटल पर
हमारा अतीत बन जाता है
एक प्यारा सा एल्बम
जिसे हम पलटते  रहते हैं
अपने एकाकी समय में
मृत्यु पर्यंत 

रविवार, 8 अगस्त 2010

टिपण्णी रुपी भ्रमर

क्यों लिखूं मैं
कौन पढना चाहता है
कौन मेरी भावनाओं के भंवर में
क्यों फसेगा
कौन मरना चाहता है


ब्लॉग सारे
हैं समंदर की लहर से
शब्द उतने
जितना है पानी जलधि में
हर कोई
लहरों पे जैसे छोड़ता है
अपनी कागज की
वो छोटी नाव जैसे
रोज कितनी नाव
जाने है उतरती
रोज जाने नाव कितनी
डूब जाती


कौन किसकी
नाव को देखे संभाले
हर कोई अपनी ही
नैय्या खे रहा है
बिन सुने ही
बिन पढ़े ही
बिन गढ़े ही
एक नन्ही टिपण्णी सी दे रहा है


कुछ बड़े होशियार
ब्लॉगर घूमते हैं
हर नए ब्लॉगर को
टेस्ट करते हैं
एक दिन में एक
टिपण्णी लिख कर
दस जगह फिर
कॉपी पेस्ट करते हैं

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

अपना खयाल रखना

मित्र !
क्या कर रहे हो?
खाली बैठे-
यूँ धुंए के छल्ले बना कर
होठों को गोल करके
हवा में छोड़  रहे हो
हर छल्ला जैसे जैसे आगे बढ़ता है
फैलता जाता है

उसने  कहा
किलिंग टाइम ....
उदास हूँ

मैंने पूछा
किलिंग टाइम
यानि समय का शिकार
बहुत खूब मित्र
तुम समय का शिकार कर रहे हो
या समय तुम्हारा शिकार कर रहा है
यू आर किलिंग योर सेल्फ
खुद को मार रहे हो

झुंझला कर बोला मित्र
तुम्हे क्या ?
खुद को ही मार रहा हूँ ना '
तुम्हे तो नहीं मार रहा ना ?

मुझे ?
मुझे तो तुम अपने आप से पहले मार रहे हो
ये जो है ना तुम्हारा छल्ला
ये मेरी तरफ आते आते
बन जाता है
फांसी का एक फंदा
जिसमे मैं
ना चाहते हुए भी
लटक जाता हूँ
क्योंकि तुम्हारा मित्र हूँ
इसके पहले कि
समय के शिकार कि जगह
तुम मेरा शिकार करो
मैं चलता हूँ, मित्र
अपना खयाल रखना