Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

सोमवार, 30 अगस्त 2010

मुट्ठी भर रेत

क्षण क्षण चिराग जल रहा
हर वक़्त यह तन गल रहा

हर सांस कुछ ले जा रही
हर वक़्त जीवन जल रहा

हर सुबह उगता एक दिन
हर शाम इक दिन ढल रहा

मुट्ठी में भींचा रेत को
सब कुछ मगर फिसल रहा

चेहरे पे झुर्री आ गयी
परतों में एक एक पल रहा

जो भविष्य था वो तो आज है
वो जो आज था हुआ कल रहा

हम तेज कितना भाग लें
पर काल सब निगल रहा

यूँ ही जिंदगी तो खिसक गयी
अब हाथ बैठा मल रहा

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

सैलाब

कोई  चुपके  से  मेरे कानों  में यूँ कुछ कह गया
आँख के पीछे थमा सारा समंदर बह गया

दर्द की नीवों पे कितने पत्थरों के दुर्ग थे
इक जरा जज्बात के झोंके से सब कुछ ढह गया

मैं समझता था कि मेरा ख़त्म सब कुछ हो चुका
फिर भी सीने में धडकता दिल बेचारा रह गया 

सह ना पाया प्यार के जज्बात के दो बोल मैं 
वक़्त के हालात के चुपचाप थप्पड़ सह गया 

रविवार, 22 अगस्त 2010

कमबख्त जिंदगी

हमको कभी हंसाती है कमबख्त जिंदगी
अक्सर मगर रुलाती है कमबख्त जिंदगी


जो चाहते जीना जिंदगी शाम ढले तक
पहले उन्हें भगाती है कमबख्त जिंदगी


जो मांगते हैं मौत जिंदगी के ग़मजदा
घुट घुट उन्हें जिलाती है कमबख्त जिंदगी


हंसने की चाह में हैं , जो रो रो के जी रहे
आंसू उन्हें पिलाती है कमबख्त जिंदगी


जो सरफिरे करते नहीं परवाहे -जिंदगी
सर पर उन्हें बिठाती है कमबख्त जिंदगी

शनिवार, 21 अगस्त 2010

संपूर्ण समर्पण

अनुभूति तुम , अनुभूत मैं
अविभाव तुम, अविभूत मैं


अनुराग तुम , अनुरक्त मैं
आशक्ति तुम, आशक्त मैं


दुर्लब्ध  तुम, उपलब्ध मैं
हो शब्द तुम, निःशब्द मैं


अभिव्यक्ति तुम , अभिव्यक्त मैं
हो भक्ति तुम , हूँ भक्त मैं

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

चल मेरे भाई खेलें खेल

चल मेरे भाई खेलें खेल
लुक्का छिपी छुक छुक रेल
खूब चटपटी बनती है
खेलों की चल खा लें भेल


खेलें चल किरकेट यहाँ
बनते धन्ना  सेठ यहाँ
कुछ तो घपला हुआ जरूर
एक था मोदी एक थरूर
दोनों का क्यों निकला तेल
चल मेरे भाई खेलें खेल


या फिर चल होकी खेलें
महिलाओं को संग ले ले
बन जाये आशिक ऐसे
कोच बने कौशिक जैसे
करें प्रेम का प्यारा मेल
चल मेरे भाई खेले खेल


चल कोई ऊंचा काम करें
दुनिया भर में नाम करें
खेलें खेल खिलाडी सा
नेता हो कलमाड़ी सा
नीचे वाला जाये जेल
चल मेरे भाई खेलें खेल

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

अतीत - एक शाश्वत सत्य

घडी रुक जाती है
समय नहीं रुकता
भागता रहता है निरंतर
क्षण भर को नहीं मध्यांतर

कितनी तेजी से बदलता है
भविष्य वर्तमान में
वर्तमान अतीत में

भविष्य! एक भ्रम है
जो अज्ञात है वो भ्रम है
वर्तमान एक प्रक्रिया है
एक नए अतीत के निर्माण की
जो बीत रहा है
जो व्यतीत हो रहा है
हाँ, वही तो अतीत हो रहा है

अतीत एक शाश्वत सत्य
जो स्थाई है
जो अपरिवर्तनीय है

अतीत-
समय कि शिलाओं पर
घटनाओं के लेख
घटनाएँ जो बन जाती है हिस्सा
हमारे जीवन का
एक एक दृश्य
जो अंकित हो जाते हैं
हमारे स्मृति पटल पर
हमारा अतीत बन जाता है
एक प्यारा सा एल्बम
जिसे हम पलटते  रहते हैं
अपने एकाकी समय में
मृत्यु पर्यंत 

रविवार, 8 अगस्त 2010

टिपण्णी रुपी भ्रमर

क्यों लिखूं मैं
कौन पढना चाहता है
कौन मेरी भावनाओं के भंवर में
क्यों फसेगा
कौन मरना चाहता है


ब्लॉग सारे
हैं समंदर की लहर से
शब्द उतने
जितना है पानी जलधि में
हर कोई
लहरों पे जैसे छोड़ता है
अपनी कागज की
वो छोटी नाव जैसे
रोज कितनी नाव
जाने है उतरती
रोज जाने नाव कितनी
डूब जाती


कौन किसकी
नाव को देखे संभाले
हर कोई अपनी ही
नैय्या खे रहा है
बिन सुने ही
बिन पढ़े ही
बिन गढ़े ही
एक नन्ही टिपण्णी सी दे रहा है


कुछ बड़े होशियार
ब्लॉगर घूमते हैं
हर नए ब्लॉगर को
टेस्ट करते हैं
एक दिन में एक
टिपण्णी लिख कर
दस जगह फिर
कॉपी पेस्ट करते हैं

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

अपना खयाल रखना

मित्र !
क्या कर रहे हो?
खाली बैठे-
यूँ धुंए के छल्ले बना कर
होठों को गोल करके
हवा में छोड़  रहे हो
हर छल्ला जैसे जैसे आगे बढ़ता है
फैलता जाता है

उसने  कहा
किलिंग टाइम ....
उदास हूँ

मैंने पूछा
किलिंग टाइम
यानि समय का शिकार
बहुत खूब मित्र
तुम समय का शिकार कर रहे हो
या समय तुम्हारा शिकार कर रहा है
यू आर किलिंग योर सेल्फ
खुद को मार रहे हो

झुंझला कर बोला मित्र
तुम्हे क्या ?
खुद को ही मार रहा हूँ ना '
तुम्हे तो नहीं मार रहा ना ?

मुझे ?
मुझे तो तुम अपने आप से पहले मार रहे हो
ये जो है ना तुम्हारा छल्ला
ये मेरी तरफ आते आते
बन जाता है
फांसी का एक फंदा
जिसमे मैं
ना चाहते हुए भी
लटक जाता हूँ
क्योंकि तुम्हारा मित्र हूँ
इसके पहले कि
समय के शिकार कि जगह
तुम मेरा शिकार करो
मैं चलता हूँ, मित्र
अपना खयाल रखना 

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

इस तरह कुछ जियें

आज जीने दो इस कदर मुझको
कल जो मर जाएँ भी तो ग़म न रहे
इस तरह कुछ जियें ज़माने में
कोई ये कह न सके की हम न रहे


रहने को घर की क्या जरूरत है
दिल के कोने में घर बना लेंगे
बस इसी जन्म की यादें काफी
इस के बाद फिर कोई जनम न रहे


सैकड़ों साल यूँही जीने से
चंद खुशियों के दिन ही काफी है
उम्र की शाम ढल चले; पहले
उठ के चल दें ,कोई भरम न रहे


कोई रोता है जब कोई मरता
बस ये रस्मों रवाज ऐसे हैं
हर कोई हंस के विदाई दे दे
आँख जरा सी भी कोई नम न रहे

बुधवार, 4 अगस्त 2010

बिखरा और छितराया मन

मिलने को व्याकुल था कितना ,
फिर भी क्यों कतराया मन
मैं ही झुकता जाऊं क्योंकर ,
यह कह कर इतराया मन .

चाहत बिखरी कण कण में थी  ,
इच्छाएं पल पल में थी
सब कुछ पाने की ख्वाहिश में
बिखरा और छितराया मन

फूलों की चाहत में कितनी
खुशियाँ दिल में बसती थी
अब फूलों के बीच खड़ा मैं 
जाने क्यों मुरझाया मन 

यह कर लूं मैं , वह कर लूं मैं 
सपने हरदम बुनता था 
करने का कुछ वक़्त हुआ तो 
क्यों सोया सुस्ताया मन 

जब तक थे अवसर मन घूमा- 
फिरता था आवारा सा 
छूट गयी जब डोर समय की 
अब है क्यों पछताया मन