Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

पूरा जीवन एक चलचित्र है

हर पल
कोई भी पल
कभी मरता नहीं 
बीत जाता है 
ख़त्म नहीं होता 

वास्तव में 
हर पल वहीँ रहता है 
जहाँ वो था 
हम  ही आगे बढ़ जाते हैं
हम ही बीत जाते हैं 
हम ही ख़त्म होते रहते हैं 
हर दिन 
हर पल 

कभी पीछे मुड़ के देखो
तो नजर आयेंगे 
वो तमाम पल 
जिन्हें हम समझते थे 
कि ख़त्म हो गए हैं 
वे पल छिपे होते हैं 
कहीं ना कहीं 

कुछ धुंधले ख्वाबों में 
कुछ स्कूल की किताबों में 
कुछ पुराने कपड़ों में 
कुछ आकाश   को तकती छत में 
कुछ तुड़े मुड़े पुराने ख़त में 
कुछ पुराने बिना तार वाले गिटार में 
कुछ कमरों के बीच खुलने वाले किवाड़ में 

ये पल बड़े विचित्र हैं 
आँखे मूँद कर देखो 
हर पल एक चित्र है 
दिल के परदे पर देख 
पूरा जीवन एक चलचित्र है     

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात






मुंबई जुलाई २६, २००५


जिंदगी भर नहीं भूलेगी
वो बरसात की रात
जानलेवा थी वो वर्षा
बुरे हालात की रात

दफ्तरों से तो निकलना हुआ उस दिन सबका
घर नहीं पहुंचा कोई चाहे हो निकला कब का
खड़े पानी में सभी लोगों की
इक जमात की रात

डूबते देखे वो रस्तों पे गाड़ियों के काफिले
मरते देखे सड़क पे इन्सां जैसे हो बुलबुले
क़यामत का दिन है - ऐसे ही
खयालात की रात

लोग मेहमान थे उस रात किसी अनजाने के
ऐसा लगता था की सब थे जाने पहचाने से
जात मजहब से अलग हो रही
वो मुलाकात की रात

था बुरा सब कुछ मगर कुछ हुआ अच्छा भी था
था सुखी जो भी वो उसदिन हुआ सच्चा भी था
एक दूजे के लिए दर्द और
जज्बात की रात

रविवार, 25 जुलाई 2010

समर्पित जोन कीट्स को

बहुत सालों के बाद

निकला हूँ शहर से बाहर
अपनी गाडी में बैठ कर
एक छोटे बच्चे सा उत्साह लिए
गाडी अभी तक मोहल्ले से निकली भी नहीं
और मन ने कल्पना शुरू कर दी
हरे भरे खेतों की
सड़क के किनारे खड़े दरख्तों की
खुले आसमान की
पंक्षियों के कलरव की
गाँव के बच्चों के झुण्ड की
रस्ते में आने वाले पनघट की

सोचता हूँ कुछ रास्ता तय होने के बाद
किसी ढाबे पर रुक कर चाय पीऊँगा
मसाले वाली
कल्पना करते करते काफी समय निकल गया
लेकिन ये शहर तो -
ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा
आखिर झुंझला कर पूछा
ड्राईवर से - क्यों भैया
शहर से बाहर ही जा रहे हो न ?
ड्राईवर ने कहा - साहब , शहर से बाहर तो कब के आ चुके
कुछ समझ में नहीं आया


पूछा- अरे भाई , शहर कहाँ ख़त्म हुआ ?
कोई खेत नहीं,
कोई गाँव नहीं
कोई पनघट नहीं
कोई ढाबा नहीं
वो हंस के बोला -
साहब , लगता है कभी बाहर निकले नहीं
सर, मुंबई के बाहर ये सब कहाँ मिलेगा
मुंबई के बाहर यही गाँव है
पक्की इमारतें
सड़क के किनारे होटल
दारू के अड्डे
और टायर पंक्चर की दुकाने
जहाँ लोकल नहीं पहुँचती समझो गाँव है
और इस प्रकार मुझे समझा दिया
गाँव का असली मतलब
उस ड्राईवर ने


और तभी मुझे याद आयी
अंग्रेजी के मशहूर कवि जोन कीट्स की एक रचना
जिसका शीर्षक था -
'वो जो बहुत लम्बे समय से शहर के घेरे में था'**
जिसमे कवि एक दिन शहर के बाहर बिता कर लौटता है
खुले नीले आसमान और
घनी हरी भरी घास की स्मृतियों के साथ
पृकृति के साथ बिताया वो दिन
उसे लगता है कितनी जल्दी ख़त्म हो गया
और उस एक दिन ने
जन्म दे दिया एक खूबसूरत कविता को


अच्छा हुआ तुम पैदा नहीं हुए इक्कीसवी सदी में
और मुंबई में
वर्ना विश्व वंचित रह जाता एक महान कवि से






**To One who has been Long in City Pent

To one who has been long in city pent,
'Tis very sweet to look into the fair
And open face of heaven,--to breathe a prayer
Full in the smile of the blue firmament.
Who is more happy, when, with heart's content,
Fatigued he sinks into some pleasant lair
Of wavy grass, and reads a debonair
And gentle tale of love and languishment?
Returning home at evening, with an ear
Catching the notes of Philomel,--an eye
Watching the sailing cloudlet's bright career,
He mourns that day so soon has glided by:
E'en like the passage of an angel's tear
That falls through the clear ether silently.

[By John Keats (1795-1821) ]

शनिवार, 24 जुलाई 2010

अपने आप से बातें

























मैं अपने आप से बातें करता रहता हूँ

अपना साथी खुद बन जाता
सुख दुःख की सब बातें कहता
सुख दुःख की सब बातें सुनता
फिर मन के घोड़े पर चढ़  कर
मैं चाहूं जहाँ चला जाता

मैं अपने आप से बातें करता रहता हूँ

' तू कौन?'- कभी यह प्रश्न किया खुद से
'मैं कौन ?' - प्रश्न ही उत्तर बन आया
कितना साधारण प्रश्न किया मैंने
कितना मुश्किल उत्तर पाया मैंने
क्या मैं हूँ - वो जो नाम मेरा लिखा
पर वह तो बस एक शब्द मुझे दिखा
मैं शब्द नहीं , बस नाम नहीं हूँ मैं
'मैं कौन?;- प्रश्न वैसा ही खड़ा रहा

मैं अपने आप से बातें करता रहता हूँ

दर्पण के अन्दर जो है खड़ा हुआ
वह ही तो 'मैं हूँ ' - ऐसा ही तो दिखता  हूँ
पर वह तो इक परछाई है - फिर प्रश्न उठा
जब तक दर्पण तब तक ही बस परछाई है

' इतना लम्बा चौड़ा तन ही तो बस तू है '
अन्दर से फिर आवाज कोई आयी
' यह मैं हूँ'- तो फिर ढूंढ रहा है कौन ?
'यह मैं हूँ' - तो फिर प्रश्न पूछता कौन ?

मेरे अन्दर क्या है - यह मुझको पता नहीं
मेरे अन्दर क्या क्या घटता कुछ पता नहीं
कैसे  साँसे अन्दर जाती बाहर आती
कब तक आती कब तक जाती यह पता नहीं
कैसे तन के अन्दर शोणित बहता रहता
कैसे दिल धड़क धड़क के कुछ कहता रहता
कैसे सब कुछ चलते चलते फिर रुक जाता
कैसे यह तन सूखी डाली सा झुक जाता

क्या बस शरीर के रहने तक ही मैं रहता
क्या इसके आगे फिर मेरा अस्तित्व नहीं
क्या इसके आगे इन प्रश्नों का अर्थ नहीं
इतना ही है तो यह जीवन क्या व्यर्थ नहीं

कितने सारे प्रश्नों की झड़ी लगा डाली
मैंने खुद को ही उलझन में है डाल लिया
अब बहुत हो चुकी खुद से खुद की बात बहुत
कह कर अपने प्रश्नों को खुद ही टाल लिया

खुद से बातें करना कितना अच्छा लगता
पल भर को भी तन्हाई पास नहीं आती
पर खुद से इतने जटिल प्रश्न भी मत करना
खुद को खुद की सच्चाई रास नहीं आती

मैं अपने आप से बातें करता रहता हूँ


 

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

डरा डरा आदमी

रात के अँधेरे में
डरा डरा आदमी
अंगुली पकड़ के चल रहा
मन के भय के भूत की
डरता है मन क्यों?
शायद अँधेरे से !

फिर बिजली जब कड़कती है
अँधेरा भाग खड़ा होता है
पर मन का भय
भागने की जगह
अट्टहास सुनकर
और बड़ा होता है
मन शायद डरता है -
शायद आवाज से !

अब सब कुछ शांत है
मौन सब , निस्तब्ध  सब
तब भी अशांत है
आदमी का मन क्यों?
अब डर की बात क्या ?
शायद भयभीत है -
इस गहन मौन से !

प्रश्न खड़ा रह गया
आखिर भयभीत क्यों ?
रात के अँधेरे में ,
दामिनी की चमक में ,
गरजती आवाज में ,
परम गहन चुप्पी में
आदमी के मन में
भय इतना गहरा क्यों?

शहरों की सड़कों पर
शेर नहीं होते हैं
सांप नहीं होते है
और नहीं होता है
जंगली कोई जानवर
निःसंदेह सत्य है
आदमी नहीं डरता
शहर की सड़कों पर
जंगल के जीव से

प्रश्न अब कठिन है
प्रश्न है सरल भी
प्रश्न आदमी है
उत्तर भी आदमी है
रात के अँधेरे में
शहर की सड़क पर
आदमी बस डरता है
आदमी की जात से

लिखो कुछ और तुम

दर्द की कविता मत लिखो
कोई लेने वाला नहीं है
कागजों में मत ढूंढो दवा
कोई देने वाला नहीं है

देंगे सब झूठी तसल्ली
और झूठी आह भी
शेर अच्छा ना लगा तो
देंगे झूठी वाह भी

फायदा क्या शब्द को
कलम बना कर
आंसुओं की दवात में
गहरा डुबा कर

चंद रोते ओ बिलखते
शेर लिख कर
बेचारा, मासूम,
परेशान दिख कर

लोग तो पढ़ते हैं
टाइम पास को
है कहाँ टाइम
कि दें  उदास को

लिखना ही है
तो लिखो कुछ और तुम
कुछ रूमानी,
आसमानी छोर तुम

या तो जो
दिल को जरा सहला सके
या किसी को
जो समझ ना आ सके

रविवार, 18 जुलाई 2010

माफ़ करना मेरे बददिमाग पडोसी

क्या चाहता है आखिर
ये मुआ पाकिस्तान
भाई बन के ना रह सके
एक अच्छा पडोसी तो बनते
अपनी लुंगी इनसे संभलती नहीं
दूसरों की धोती खींचते हैं
कभी बात चीत के लिए बुलाते हैं
बुला कर  दांत भींचते हैं
अपनी समस्याओं से लड़ने की जगह
अपनी अक्ल से लड़ते हैं
अमरीका जब धमकाता है
वहीँ भाग पड़ते हैं
बलूचिस्तान को सँभालने की जगह
कश्मीर को समस्या बताते हैं
भारत के सैनिकों  पर वश नहीं चलता
भारत के गरीब मछुआरों को पकड़ के सताते हैं  
जो तुम्हारा है ही नहीं
वो तुम्हारी समस्या कैसे हो गया
शायद यही तुम्हारी समस्या है
जो तुम्हारा नहीं
उसे पाने का ख्वाब देखना
जो तुम्हारा है
उस से हाथ खींचना
मुंबई हमले के बदमाशों को ऐसे बचा रहे हो
जैसे तुम्हारे देश के हीरो हैं
माफ़ करना मेरे बददिमाग पडोसी
तुम्हारे सियासतदान सब जीरो है

शनिवार, 17 जुलाई 2010

जिनको मिलें हैं दर्द ,बड़े खुशनसीब हैं

जिंदगी का दर्द से रिश्ता अजीब है
आँखों से आंसुओं की तरह बस करीब है

वो चाहते ही क्या जो अधूरी ना रह गयी
जिसको मिला है सब वही सबसे गरीब है

जो खुरदरी जमीं को ना महसूस कर सका
उसका नरम बिछोना ही उसका सलीब है

कैसे सुखी हैं लोग जिन्हें कोई ग़म नहीं
जिनको मिलें हैं दर्द ,बड़े खुशनसीब हैं

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

खिड़की के बाहर की दुनिया

मेरे कमरे के पूरब में एक खिड़की है
जिससे सूरज छन छन कर आया करता था
अपनी किरणों से सर मेरा सहला कर
तडके ही मुझको रोज जगाया करता था

कमरे के दक्षिण में भी एक खिड़की है
जिसके बाहर एक नीम पेड़ का झुरमुट था
जब दूर क्षितिज पर सूरज अस्त हुआ करता
कलरव करता चिड़ियों का उस पर जमघट था

पूनम की रातों को मेरे कमरे में
दूधिया चांदनी खिड़की से भर आती थी
बरसातों में इक इन्द्रधनुष का टुकड़ा
दिखता, जब बूँदें गीत सुनाती थी

ये सब बातें इतिहास हो चुकी है अब तो
अब पहले जैसा नहीं रहा मेरा कमरा
कमरे के बाहर सब कुछ बदल गया है अब
कहने को अब भी है वो ही मेरा कमरा

पूरब की खिड़की के बाहर अब दिखती है
दस मंजिल से भी ऊंची एक इमारत अब
सूरज,चंदा,किरणे,पानी और इन्द्रधनुष
शहरों के जीवन में बन गए तिजारत सब

दक्षिण की खिड़की के बाहर का नीम पेड़
बेदर्दी से जाने किसने है काट दिया
वो झुरमुट, वो जमघट , चिड़ियों का कोलाहल
जैसे जमीन के अन्दर ही है गाड़ दिया

मुझसे बिन पूछे लूट ले गए मुझसे वो
वो मेरे कमरे में छाई मेरी खुशियाँ
मेरे हिस्से का आसमान भी छीन लिया
मुझसे छीनी खिड़की के बाहर की दुनिया

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

बूँद सी जिंदगी

वर्षा की एक बूँद
जल का छोटा सा कण
नन्हा अस्तित्व पर
कितनी बड़ी प्रेरणा

खेत में किसान जब
डालता है बीजों को
खून और पसीने सी
तन मन की चीजों को

मन में एक प्रार्थना
उसके गूंजती रहती
ईश्वर! दे वृष्टि अब
ईश्वर! दे बूँद अब

गर्मी की प्यास से
तन मन निढाल हो
तन जब निर्जीव सा
सुस्त मंद चाल हो

वर्षा की एक बूँद
होठों पे गिरती है
निर्जीव तन मन में
नया प्राण भरती है

गर्म गर्म पत्थर  पर
बूँद जब उतरती है
गर्म तप्त स्पर्श से
अणु सी बिखरती है 

पत्थर की आग में
ऐसे झुलसती है
स्वयं को समाप्त कर
शीतलता भरती है

बूँद कितनी सुन्दर है
बूँद खूबसूरत है
बूँद सिर्फ जल नहीं
माणिक की मूरत है

सूरज की किरणे जब
बूंदों पर पड़ती है
आकाश कैनवास
रंग कितने भरती है

सीपी के मुख में जब
बूँद एक गिरती है
चमत्कार होता है
बूँद बने मोती है

काम ऐसे कर चलें
फिर चाहे मार चलें
बूँद जैसे अश्रु सारी
आँखों में भर चलें

बूँद सी ही जिंदगी
हम सब को चाहिए
ना हो विराट भले
अर्थपूर्ण चाहिए