हर दिन शुरू होता है
सूरज की किरणों के साथ
पूर्व से आती वो शक्ति की रेखाएं
भर देती हैं पृथ्वी को
उजास से ऊर्जा से उत्साह से
अंतर्ध्यान हो जाता हैं
अन्धकार,आलस्य ,प्रमाद
जैसे जैसे सूरज चढ़ता है
किरणे प्रखर होती हैं
कार्यशील होती है
पृथ्वी पर श्रृष्टि
पशु पंक्षी कीट पतंग और मनुष्य
लग जाते हैं अपने जीवन के सँचालन में
सब ने बना रखे हैं
अपनी अपनी जरूरतों के दायरे
उस दायरे के अन्दर
उसे सब कुछ चाहिए
उसके लिए वो घुस सकता है
दूसरे के दायरे में भी
क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे का भोजन है
क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व को खतरा है
जानवर का दायरा छोटा है
जिसकी जरूरत है सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा
आदमी का दायरा सबसे बड़ा
जिसमे समा जाते हैं
बाकी सारे दायरे
क्योंकि आदमी की भूख और जरूरतें अनंत हैं
जिसमे सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा ही नहीं
एक लम्बी फेहरिस्त है चीजों की -
जैसे की
लोमड़ी की खाल से बना फर का कोट
सांप की चमड़ी से बने जूते
खरगोश की आँखों पर आजमाए गए शृंगार के साधन
हिरन की खाल से बने गलीचे
हाथी के दांत की सजावट
शेर के मुह का दीवार-पोश
इतना ही नहीं
फेहरिस्त और भी लम्बी है
परमाणु बम - वृहद् नर संहार के लिए
रसायन - मनुष्य को लाचार बनाने के लिए
बारूद - विस्फोट में लोगों को उड़ा देने के लिए
अनंत है फेहरिस्त
मनुष्य नाम के जानवर की जरूरतों की
इस बड़े दायरे से बाहर सिर्फ एक दायरा है
ईश्वर का दायरा
निरंतर कोशिश करता है
जिस में घुस जाने की इंसान
कभी अंतरिक्ष में घुस कर
कभी जीव की रचना -
उन नियमो के बाहर जाकर कर के
या फिर शायद
यह भी मनुष्य की एक कपोल कल्पना है
अपने दायरे से बाहर जो कुछ है -
उसे वो ईश्वर कह देता है
धीरे धीरे अपना दायरा बड़ा बनाता जाता है
और उसका दायरा छोटा
फिर भी डरता है उससे
क्योंकि वो - सिर्फ वो
आदमी को उसका कद याद दिलाता है
कभी भूकंप से , कभी सुनामी से ,
कभी कैंसर से , कभी एड्स से
और तब ये लाचार इन्सान
गिड़गिडाता है भीख मांगता है
अपने घुटनों पर गिर कर
ईश्वर भी चकित है
अपने इस निर्माण पर
क्योंकि वो देखता है
उस विध्वंस को
जो धर्म के नाम पर करता है इंसान
कुछ और नहीं तो
ईश्वर को ही भागीदार बना कर .
"ईश्वर भी चकित है
जवाब देंहटाएंअपने इस निर्माण पर
क्योंकि वो देखता है
उस विध्वंस को
जो धर्म के नाम पर करता है इंसान
कुछ और नहीं तो
ईश्वर को ही भागीदार बना कर".
प्रिय महेंद्र!
तुम्हारी रचनाओं की उपरोक्त अंतिम पंक्तियाँ ही पूरी रचना का सार है और आज के परिपेक्ष में सटीक भी है. इंसान नो जानवर का 'क्लोन' बना कर ईश्वर के बराबर बनने की कोशिश भी की है पर इंसान ईश्वरत्व की तो कल्पना भी पूरी तरह से नहीं कर सकता "उस" जैसा बनना .... ???
बहुत ही सुन्दर रचना आपकी , धरती से आकाश तक आकाश से अन्तरिक्ष तक जानवर जरूरते इच्छाए और दायरे सभी कुछ समेटती और सवाल उठाती है आपकी कवीता बहुत ही सही बात इश्वर भी चकित होता होगा वाकई होता होगा जब वो देखता होगा उसकी बनायीं दुनिया में लोग इक दूसरे के खून के प्यासे हैं खुद की जरूरते और खुद की इच्छाओं के सिवाय उसे कुछ नजर नहीं आता ये आलम देख कर इक शेर याद आता है खुदा किसी को इतनी खुदाई भी ना दे की अपने सिवाय कुछ दिखाई भी ना दे इन दिनों इंसान इंसानियत ही भुला बैठा है की अब तो मजहब कोई ऐसा चलाया जाये जिसमे इंसान को भी इन्सान बनाया जाए
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