Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

जीवन भी चिता है

जा रहा हर एक पल
बन रहा हर 'आज' कल
श्वास श्वास मर रहा
बूँद बूँद भर रहा
जीवन का घट है
भर कर मरघट है  
बीत रहा वक़्त है
सूख रहा रक्त है
पोर पोर ढल रहा
कतरा कतरा जल रहा
जिंदगी है कट रही
यूँ कहो सिमट रही
वक़्त हमें पढ़ रहा
रक्त चाप बढ़ रहा
धोंकनी धधक रही
अग्नि सी भभक रही
रिश्तों के झुण्ड में
जीवन के कुंड में
हविषा बन जल रहा
खुद को ही छल रहा
मरने से डरता है
हर घड़ी जो मरता है
भोला इंसान है
यूँ ही परेशान है
जिस चिता से डर रहा
सब प्रयत्न कर रहा
मृत्यु बस चिता नहीं
जीवन कविता नहीं
जीवन भी चिता है
मृत्यु भी कविता है

1 टिप्पणी:

  1. महेंद्र जी , आपकी तो सभी रचनाएं जीवन के बहुत करीब होती हैं ये कविता भी बहुत सुन्दर है वाकई ये जीवन चिता ही है जिसमें हम धीरे धीरे भस्म होते जाते हैं और मौत ही इक सच्ची कविता है बहुत ही गहरी बात है आप ब्लॉग तक आये और मेरे ब्लाग पर अपनी इक बहुत सुन्दर कविता भी छोड़ी शुक्रिया
    मुझे माफ़ करियेगा मैं आपके ब्लॉग तक बहुत कम ही आ पाती हूँ आप के ब्लॉग क्या मैं तो अपने ब्लॉग पर ही नहीं जा पाती हूँ आपने जो कविता लिखी वो बहुत ही सार्थक है और मेरी पोस्ट में , मैं जो कहना चाहती थी वो आपकी कविता ने बखूबी बयां कर दिया काश ---------मेरे पास आपकी तरह कविता कहने का हुनर होता
    है -ममता

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