Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

बुधवार, 27 जुलाई 2011

स्मृति : वो २६ जुलाई की बरसात

वो कैसी बरसात
थी कैसी बरसात
जीवन देने वाली
गिरी थी बन के गाज

निकले थे लोग
घर से सुबह
दिन भर के
जीवन के लिए
लौटे नहीं
रातों को भी
आशंकाएं
मन में लिए

काली थी कैसी रात
वो कैसी बरसात

सोमवार, 25 जुलाई 2011

आम जीवन की उपमाएं

सूरज थके हुए चेहरे सा डूबने लगा
दिन भर की रुपैयों सी चमक ख़त्म हुई
मेहनत के बाद का सा सुर्ख रंग हो गया
क्षितिज तक पहुँचने में पाँव हुए बोझिल
जैसे कह रहा हो - कोई अब घर पहुंचा दे !

रात प्रेमिका के केश सी फ़ैल गयी
चाँद माथे की बिंदी सा चमक उठा
तारे आँचल में टंके जगमगाने लगे
हवा नगमा बन गुनगुनाने लगी
रात रानी ने इत्र की शीशी खोल दी

सागर व्यस्त है किसी बंधुआ मजदूर सा
दिन हो या रात काम करता है
माथे का पसीना पोंछ कर लहरों को
फेंक देता है रेतीले किनारों पर
अपने नमक को खा कर ही खुश है

भोर दरवाजे पर खड़ी है, खामोश सी
सोचती है दस्तक दे या नहीं
शोर से रात जाग जायेगी
पर सूरज कहाँ रुकने वाला है
हाथ पकड़ कर बुला लिया भोर को

शनिवार, 23 जुलाई 2011

इस हमाम में हर कोई नंगा है

किसको करें फरियाद हाल बेढंगा है
इस हमाम में हर कोई नंगा है

सरकार भ्रष्टाचार का है नाम अब
तौलिया बन गया आज तिरंगा है

मर रहे साधू आमरण अनशन से
हो रही मैली आज भी गंगा है

कुछ राज खुल गए , और भी बाकी है
खोल कर देखो जहाँ भी पंगा है

अन्दर से मरता देश अपना पल पल है
बाहर से देखो तो बड़ा ही चंगा है

शनिवार, 16 जुलाई 2011

कल हो या न हो













एक और धमाका
एक और हादसा
दर्जनों लाशें
सैंकड़ों घायल
थोड़ी चीखें
थोड़ी आह
थोडा कोहराम
थोडा आक्रोश
थोडा भय
थोडा आवेश
मीडिया के कैमरे
लोगों का उचक उचक कर दिखना
नेताओं द्वारा निंदा
विदेशों द्वारा भत्सर्ना
सरकार का आश्वासन
विरोध पक्ष का आक्रमण
झवेरी बाजार में छितराए मानव अंग
ओपरा हाउस में फैला खून
अगले दिन की बरसात में सब धुल गया
सारा आक्रोश घुल गया
घटना इतिहास बन गयी
लोग अपने अपने काम में लग गए
मीडिया ने कहा
मुंबई शहर की स्पीरिट जिन्दा है
एक मुर्दा शहर की जिन्दा स्पीरिट
अभी जिन्दा है
ये कह कर थपथपा लो अपनी पीठ
और इंतजार करो अगले धमाके का
जियो जिंदगी मौज से , न जाने
कल हो या न हो

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

मित्र के पचासवें जन्मदिन पर

पचास वर्ष जीवन के यूँ बीत गए

पचास वर्ष जीवन के जैसे मिल गए

जो बीत गया वो था समय का बहाव

जो मिल गया वो है जीवन - स्वभाव



चला गया बचपन के खेलों का कल

मिल गए उन खेलों की यादों के पल

वो दिन जब स्कूल का चढ़ता बुखार

ये दिन - उन दिनों का है जैसे कर्जदार



चली गयी बचपन की वो जिद्दें हजार

वो माँ का मनाना और बापू की मार

अमूल्य निधि बन गयी वो माँ की मनुहार

जीवन बदल गयी पिता की फटकार



दर्पण में खुद को लखना और जुल्फें बनाना

वो हीरो सा दिखना , जरा गुनगुनाना

वो दोस्तों के बीच में फ़साने सुनाना

सच्ची झूठी बातों की मिर्ची लगाना



है दर्पण वही लेकिन हीरो नहीं है

थोडा ढल गया लेकिन जीरो नहीं है

हैं जुल्फें वही पर सफेदी मिली है

होठों पे मुस्कान यूँ ही खिली है



वो माँ बाप का देख लड़की को आना

बिना कुछ कहे जाके फेरे कराना

वो लड़की तो अब बन गयी जिंदगी है

मेरी हर ख़ुशी है मेरी बंदगी है



वो बचपन नहीं छूट जाता कहीं भी

वो बच्चों के संग लौट आता अभी भी

जीवन नहीं बीत जाता समय संग

वो लौटा है फिर से जरा सा बदल रंग