Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

शुक्रवार, 20 मई 2011

अन्धविश्वास

आस्थाओं के अँधेरे में
सहमी सहमी मानवता
पीढ़ियों की धरोहर
निरंतर गहनता !

आसान नहीं है
अंधेरों  को स्वीकारना
बुद्धि को झुठलाना
चिंतन को नकारना !

ज्ञान विवेक शिक्षा
सब पर ताला एक लगा
एक पुरानी किताब की धूल
का तिलक लगाना !

कितना मुश्किल है
अँधेरे  में सीढियां उतरना
हाथ में एक नयी टोर्च 
बंद कर के झुलाते हुए !

 आस्थाएं जो अंधी हैं
आस्थाएं जो बहरी हैं
आस्थाएं जो गूंगी है
आस्थाएं जो बूढी हैं

आस्थाएं जो विवाह है
आस्थाएं जो दहेज़ है
आस्थाएं जो आग है
आस्थाएं जो सती है

आस्थाएं को तलवार हैं
आस्थाएं जो बलि हैं
आस्थाएं जो जाति है
आस्थाएं जो नर संहार हैं 

आस्थाएं जो अछूत हैं 
आस्थाएं जो भूत हैं 
आस्थाएं जो डायन हैं 
आस्थाएं छुआछूत है 

आत्मा की आवाज को दबा चुकी आस्थाएं 
मन की मुस्कान को खा चुकी आस्थाएं 
ह्रदय की करुना को पी चुकी आस्थाएं 
हिंसा के तांडव को जी चुकी आस्थाएं 

अरे, कोई तो खड़ा हो सीना तान कर 
आत्मा को पहचान कर , बुद्धि को मान कर 
कोई तो उठाये एक पत्थर 
और दे मारे अन्धविश्वास के दुर्ग पर  

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