Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

शुक्रवार, 11 जून 2010

आदमी

निकलो जो खोजने नहीं मिलता है आदमी
यूँ दर बदर फिरते कई हजार आदमी

कितना सुखी है जानवर उसको पता नहीं
रोटी की दौड़ में लगा लाचार आदमी

पैसा कमा लिया बहुत सेहत के दाम पर
पैसा बहा रहा है अब बीमार आदमी

आराम से जीने के सब साधन जुटा लिए
जीने को वक़्त का है तलबगार आदमी

कुत्ते की वफादारी है काबिल मिसाल के
कुत्ता  है पर नहीं है वफादार आदमी

अपना शिकार मार कर खाता है जानवर
खाता है रोटी छीन कर 'खुद्दार' आदमी

मंडी में सारे माल के कुछ दाम है मगर
बेदाम के खड़ा सरे बाजार आदमी

अपनी बनाई सभ्यता की भंवर में फंसा
मरता है झूठी शान की मझदार आदमी

दुनिया की भीड़ भाड़ में चेहरे अलग अलग
संसार तो नाटक है , बस किरदार आदमी  
 

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