अपना चेहरा जब भी देखा आईने में ,
कितना झूठा पाया खुद को आईने में .
झूठी शान दिखाता रहता दुनिया में ,
कितना हल्का खुद को लगता आईने में .
दुनिया कहती मुझको मैं कोई फ़रिश्ता हूँ ,
खुद को मैं क्यों पापी लगता आईने में .
अकड़ा फिरता हूँ ऊँची इज्जत की धुन में ,
बस नाटक सा करता दिखता आईने में .
बहुत ही अच्छी रचना.
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर लिखा है। बधाई।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा अभिव्यक्ति………………आईना दिखाती हुयी।
जवाब देंहटाएंआईने के समक्ष खुद को रख पाने की हिम्मत कम लोग ही कर पाते हैं...आप की रचना शशक्त है...बधाई
जवाब देंहटाएंनीरज
How true depiction of the actual self within everyone
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