Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

रविवार, 13 जून 2010

मानसून

धरती थी तपती
राम राम जपती
झुलस रहा दिन
घंटे गिन गिन
उमस भरी  रात
तारों से बात 
गस खाके घूमी
जैसे ही भूमि

प्यास है ज्यादा
पानी है कम
अम्बर की ऑंखें
तब हुई नम
सूरज भी पिघला
ठन्डे से निकला
हवा भी जागी
मंद मंद भागी

घबरा के बादल
हो गया पागल
छिड़का जब पानी
तब धरती रानी
थोडा सा जागी
बेहोशी भागी
बिजली तब कडकी
सूरज पर भड़की

मारोगे इसको
अब यहाँ से खिसको
सुन बादल प्यारे
और छींटे मारें
और फिर जग में
धरती की रग में
दौड़  उठा खून
बन  मानसून

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