Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

शुक्रवार, 4 जून 2010

कैंसर

संदेह होता है
ईश्वर की न्याय व्यवस्था पर
जब देखता हूँ किसी स्वस्थ इंसान को
जाते हुए कैंसर की गिरफ्त में

हँसता खेलता जीवन ,
पत्नी की ख़ुशी
बच्चों की खिलखिलाहट
माता पिता का संतोष
मित्रों की मस्ती
सब कुछ गायब हो जाता है

रह जाती है
एक उदास जिंदगी
बाथरूम में खुल कर रोने के बाद
 बाहर आकर
पत्नी की झूठी मुस्कराहट
स्कूल से लौट कर
सीधा खेल के लिए दौड़ लगाने वाले
बच्चों का सामान्य से अधिक समय देना
बात बात पर अपनी बीमारी
और जरूरतों के जिक्र की जगह
माता पिता की बातों से
शिकायतों का गुम हो जाना
होली दिवाली दिखने वाले
रिश्तेदारों का निरंतर आना जाना
बेदर्दी से घेर कर पार्टी लेने वाले
दोस्तों का बाहर चलने का आग्रह .

और इन सबके बाद
अपने अकेले का समय
सर पर हथोड़े से मारता है
क्या होगा पत्नी का ?
बच्चों का भविष्य ?
माता पिता का बुढ़ापा ?
बीमारी का कर्ज ?
और भी सैंकड़ों प्रश्न .

ईश्वर ! उत्तर दो !
क्या औचित्य है ?
एक पूरे परिवार को एक साथ दंड देने का .
कौन सा साझा पाप पुण्य है
कुछ समझ में नहीं आता ,
बस लगता है -
ये ईश्वर -विश्वर सब बकवास है
मनगढ़ंत कहानी है

मृत्यु से कौन डरता है !
डर लगता है जिंदगी से -
कैंसर के साथ.

2 टिप्‍पणियां:

  1. rishtedaaron me do logon ko ye beemari leel gayi...maarmik kavita

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  2. It brought tears in my eyes, I could feel it because I have seen my father fighting it for 7 years and the situations as vivdly portraited by you in words

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