Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

रविवार, 27 जून 2010

फ़ुटबाल विश्व कप

चमड़े की एक छोटी से गेंद
जिसमे रबर की एक थैली
उसमे भरी पूरी हवा
और लो बन गया फुटबाल
मारी  ठोकर जूते से
और फुटबाल हवा में
लगता है चढ़े ही जा रही है , चढ़े ही जा रही है
और उस के साथ हजारों  लाखों की निगाहें
भी ऊपर जा रही है
फिर आती है फुटबाल नीचे
और उसके साथ साथ लाखों निगाहें .
लोग ढूंढ रहे थे उसे ज़मीन पर
लेकिन इस बीच उस पीली जर्सी वाले ने
एक छलांग लगाई हवा में
और झेल लिया उसे अपने सर पर
कुछ इस अदा से कि वो घूम गयी
गोलकीपर की दिशा में
गोलकीपर उछला दायें
बाल गयी बाएं
और लो हो गया गोल
सारे स्टेडियम में खड़े हो गए लाखों लोग
आधे हवा में उछलते, चिल्लाते
बाकी आधे अपने सर पकड़ कर कोसते
पूरे साउथ अफ्रीका में यही माहोल बिखर गया
और बिखर  गया यही माहोल
ब्राजील में, मेक्सिको में, पुर्तगाल में , जर्मनी में
रूस में ,ग्रीस में, कोरिया में , भारत में
और सैंकड़ों देशों में
जिन्हें हम जानते हैं सिर्फ फुटबाल के लिए
टेलीविजन का कीमती समय
पूरा लग गया समीक्षा में
रेडियो इंटरनेट अखबार
भर गए इस गोल की चर्चा में
सारा विश्व दफ्तर में , घर में,
भोजन में ,यात्रा में
पूछ रहा जाने अनजाने लोगों से
विश्व कप में क्या हुआ आज?

है ना मजेदार बात
कितनी महत्वपूर्ण हो गयी
वो चमड़े की गेंद
या उसके अन्दर भरी हवा
या फिर वो करारी लात
या फिर वो सर पर झेला गया पतन
लेकिन शायद नहीं ,
ये सारी बातें जुडी थी
एक चुनौती से
अपने देश के स्वाभिमान से
उद्देश्य कैसा भी हो
कितना महत्वपूर्ण हो जाता है
जब बात जुडी हो स्वदेश से    

रविवार, 20 जून 2010

गुब्बारे सिर्फ रोटी हैं

सड़क पर बेच रहा है गुब्बारे
एक छोटा बच्चा !
लाल हरे पीले गुब्बारे
गुलाबी बैंगनी नीले गुब्बारे
गोल गुब्बारे लम्बे गुब्बारे
और कुछ नए किस्म के
दिलनुमा गुब्बारे

मैं अब तक समझता था
गुब्बारे प्रतीक है
ख़ुशी का, दावत का, जन्मदिन का , सपनों का
लेकिन आज जब मैंने झाँका
उस बच्चे की उदास आँखों में
तो सारे माने बदल गए
वो  सब कुछ नहीं
जो मैं समझता था

गुब्बारे सिर्फ रोटी हैं
गुब्बारे सिर्फ पैसे हैं
गुब्बारों में भरी हवा
इस बच्चे के पेट से निकली लपटें हैं
जिन पर यह सेक रहा है
अपने लिए रोटियां

काश! सब कुछ बादल जाए
और ये गुब्बारे बन जाए
फिर से
नन्हे नन्हे सपने
इस बच्चे के लिए
सब बच्चों के लिए

शनिवार, 19 जून 2010

टिकट लेके मिले ऐसे दर्शन नहीं चाहिये

आइये हम चलायें एक नया मजहब
जिसमे इंसान रहें इंसानों की तरह सब
ऐसा धर्म जो प्यार के सागर बहाए
ऐसा धर्म जो इंसान से इंसान को मिलाये

धर्म जिसमे मस्जिद की दीवालें ना हो
मंदिर गिरजे गुरूद्वारे शिवाले ना हो
धर्म जिसमे तन पर पहचान के प्रतीक ना हो
धर्म जिसमे दान के नाम पर भीख ना हो

पंडो की पूजा का कर्म नहीं चाहिए
झंडो की पूजा का धर्म  नहीं चाहिए
पाप कर के धोने वाली गंगा नहीं चाहिए
मुहर्रम रामनवमी का दंगा नहीं चाहिए

जीवों की बलि वाले देव नहीं चाहिए
खून में नहाये ऐसे देव नहीं चाहिए
अछूतों का  निषेध- ऐसे द्वार नहीं चाहिए
चंदे  के नाम पर व्यापार नहीं चाहिए

टिकट लेके मिले ऐसे दर्शन नहीं चाहिये
पंडों की तृप्ति वाला तर्पण नहीं चाहिए
ईश्वर की सेवा में चढ़ावे नहीं चाहिए
भक्ति के नाम पर दिखावे नहीं चाहिए

आपस में लडावे ऐसे वचन नहीं चाहिए
संकुचित भावों के प्रवचन नहीं चाहिए
मजहब के नाम पर जेहाद नहीं चाहिए
खून बन के रिसे वो मवाद नहीं चाहिए

कथनी ही कहे ऐसे ग्रन्थ नहीं चाहिए
करनी में फर्क ऐसे पंथ नहीं चाहिए
शाश्त्रों के शब्दों पर हठ नहीं चाहिए
पापों को शरण दे वो मठ नहीं चाहिए

भगवे में ठगने वाले संत नहीं चाहिए
सम्पति से चिपके महंत नहीं चाहिए
जादू से आने वाली भस्म नहीं चाहिए
गांजा चढाने वाली रस्म नहीं चाहिए

ईश्वर ने बनाये सिर्फ मानव हैं
मानव  ने बनाये किन्तु दानव हैं
हमने बना दिए इतने सारे मजहब
जिनके नीचे ईश्वर का मानव गया दब

हर मजहब ने बना दिए अपने कुछ कानून
कानूनों  ने पैदा किये धर्म के जूनून
जुनूनों से बह निकले खून के नाले
इंसान का नहीं, हुआ इंसानियत का खून

धर्म एक चलावें जिस में प्यार की ही पूजा हो
ईश्वर हो एक कोई, देव नहीं दूजा हो
कर्म जिसका केवल व्यवहार की सरलता हो
दूसरों के कष्ट देख आँख में तरलता हो

भजनों में गीत की संगीत की मिठास हो
हर किसी को देख परिवार का आभास हो
'वसुधैव कुटुम्बकम'* को माने वो समाज हो
सेवा सहयोग इस समाज का रिवाज हो

*['वसुधैव कुटुम्बकम' = विश्व मेरा परिवार ]

शुक्रवार, 18 जून 2010

हम दिन भर कितनी बातें करते रहते हैं

हम दिन भर कितनी बातें करते रहते हैं
उतनी ही बातें औरों की सहते रहते हैं

मीठी बातें, खट्टी बातें .प्यारी बातें, खारी बातें
सुख की बातें, दुःख की बातें ,करते कितनी सारी बातें
हम अपने कानों में क्या कुछ भरते रहते हैं

कभी कभी ज्ञानी बन कर करते ऊँची बातें
और कभी हलके बन कर करते ओछी बातें
औरों की बुद्धि तुला पर हम तुलते रहते हैं

कभी खुद की खातिर थोडा वक़्त निकालो
खुद को कह लो, खुद को सुन लो , समझा लो
हम अपने आप से जाने क्यों डरते रहते हैं

खुद की बातों से ही हम खुद को जान सकेंगे
हम अपने जीवन को बेहतर पहचान सकेंगे
औरों  के संग तो आडम्बर करते रहते हैं

गुरुवार, 17 जून 2010

मेज थपथपाओ मृदंग की तरह

उड़ चला है आज मन पतंग की तरह
बचपन की भोली उमंग की तरह

ज्ञान ध्यान ओहदों को छोड़ किसी दिन
मस्त होके गाओ मलंग की तरह

मर मर के जीने की चाह छोड़ दो
और जियो जीने के ढंग की तरह

जीवन को दर्शन का लेख मत कहो
जीवन है हास्य भरे व्यंग की तरह

खेलो गुलाल फाग साल में इक दिन
रंगों में मिल जाओ रंग की तरह

शाम को तनाव का चश्मा उतार कर
मेज थपथपाओ मृदंग की तरह

बुधवार, 16 जून 2010

ताजे टमाटर

थोडा सा जायका बदलें . एक मित्र ने एक sms भेजा कुछ दिनों पहले. बहुत मजा आया पढ़ कर. उसी को एक लघु कथा का रूप दे रहा हूँ.
एक भिखारी भीख मांग रहा था - ' खाने को रोटी दे दो .....खाने को रोटी दे दो ......'
लोग सुन रहे थे लेकिन कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था . एक सज्जन बाजार से निकल रहे थे , सब्जी भाजी खरीद कर. उस भिखारी की पुकार सुन कर रुक गए उसके पास.
भिखारी फिर बोला-' भूखा हूँ , खाने को रोटी दे दो ....'
सज्जन बड़े आराम से बोले - 'टमाटर खाओ' .
भिखारी बोला- 'साहब क्यों मजाक करते हो , मुझे तो एक रोटी ही दे दो .'
सज्जन बोले -' बोला ना , टमाटर खाओ '
भिखारी ने सोचा की ये साहब बाजार से ताजे टमाटर खरीद कर आ रहें हैं , इस लिए टमाटर देना चाहते हैं. भिखारी बोला- ' ठीक है साहब , टमाटर दीजिये '
सज्जन गरम हो कर बोले- ' त्या बतते हो , अब तमा तर भी मैं ही दूं तुमतो '
जी हाँ श्रीमान तुतला कर बोलते थे . क्यों, आया ना मजा ?

सोमवार, 14 जून 2010

घर इंटों की ईमारत का नाम नहीं

घर इंटों की ईमारत का नाम नहीं
घर जमीन की तिजारत का नाम नहीं
घर नहीं है एक चमचमाता म्यूजियम
घर नहीं है सोने के लिए एक वेटिंग रूम
घर नहीं है टेलीफोन पर रूम सर्विस
घर नहीं है -
मतलबी मुस्कान और बचे हुए पैसों की टिप्स
ईंट पत्थर के निर्माण को घर नहीं कहते
ऐसा होता तो मकबरों में भी लोग रहते

घर एक सजीव रचना है
जिसमे प्राण होते हैं
जिसका दिल धडकता है
जिसमे भावनाएं होती हैं
जिसमे कामनाएं होती हैं
जिसमे अपने होते हैं
जिसमे सपने होते हैं

पर्व और त्योहारों पर हँसता है घर
दुःख और विपत्ति में उदास होता है
हमारे ग़म में ग़मगीन होता है घर
हमारे सुख में शरीक होता है

घर की नींव में होता है विश्वास का पत्थर
घर की दीवारें सहयोग की इंटों से बनती हैं
जिन पर त्याग और सच्चाई का रंग रोगन होता है
जिन पर सुरक्षा की छत टिकी होती है

घर एक रसोई है ,
जिसमे परिश्रम का चूल्हा जलता है
घर एक मंदिर है
जिसमे श्रद्धा का दीपक जलता है

घर के दरवाजे
प्रतीक्षा की लकड़ी से बने होते हैं
घर की चौखट   में
स्वागत के फूल खिलें होते हैं

थके हारे दिन के लिए चाय का प्याला है घर
स्कूल से भूखे लौटे बच्चों के लिए निवाला है घर
तनाव से भरे सर पर अँगुलियों का अहसास है
और तपती दोपहरी में ठन्डे पानी का गिलास है

प्यार है घर , ममता है घर
समर्पण है घर , समता है घर
करुणा है घर , संतोष है घर
आस्था है घर, श्रद्धा है घर
विश्वास है घर , एहसास है घर
उत्साह है घर ,आभास है घर
मुस्कान है घर , सन्मान है घर
अभिमान नहीं , स्वाभिमान है घर

चांदी रूप चमकीला नहीं करती

ओस की बूंदे कभी गीला नहीं करती
सूर्य की किरणे कभी पीला नहीं करती

आसमां के रंग से सागर लगे नीला
नील बदली जल कभी नीला नहीं करती

चांदनी का रंग चाँदी से नहीं बनता
और चांदी रूप चमकीला नहीं करती

स्वर्ण के बिन भी चमकते लोग चेहरे से
स्वर्ण की आभा ही दमकीला नहीं करती

रविवार, 13 जून 2010

मानसून

धरती थी तपती
राम राम जपती
झुलस रहा दिन
घंटे गिन गिन
उमस भरी  रात
तारों से बात 
गस खाके घूमी
जैसे ही भूमि

प्यास है ज्यादा
पानी है कम
अम्बर की ऑंखें
तब हुई नम
सूरज भी पिघला
ठन्डे से निकला
हवा भी जागी
मंद मंद भागी

घबरा के बादल
हो गया पागल
छिड़का जब पानी
तब धरती रानी
थोडा सा जागी
बेहोशी भागी
बिजली तब कडकी
सूरज पर भड़की

मारोगे इसको
अब यहाँ से खिसको
सुन बादल प्यारे
और छींटे मारें
और फिर जग में
धरती की रग में
दौड़  उठा खून
बन  मानसून

शनिवार, 12 जून 2010

दर्द को साथी बना कर देखिये

जिंदगी के ग़म भुला कर देखिये
दर्द को साथी बना कर देखिये

दूसरों के कष्ट को अपना समझ
एक क्षण भर तिलमिला कर देखिये

भूल कर अपनी व्यथाओं की चुभन
एक रोते को हंसा कर देखिये

अजनबी भी सामने आ जाये तो
दोस्ती से मुस्कुरा कर देखिये

ये जहाँ संगीतमय लगने लगेगा
कोई नगमा गुनगुना  कर देखिये

एक अँधेरे रास्ते पर भूल के डर
जोर से सीटी बजा कर देखिये

शुक्रवार, 11 जून 2010

आदमी

निकलो जो खोजने नहीं मिलता है आदमी
यूँ दर बदर फिरते कई हजार आदमी

कितना सुखी है जानवर उसको पता नहीं
रोटी की दौड़ में लगा लाचार आदमी

पैसा कमा लिया बहुत सेहत के दाम पर
पैसा बहा रहा है अब बीमार आदमी

आराम से जीने के सब साधन जुटा लिए
जीने को वक़्त का है तलबगार आदमी

कुत्ते की वफादारी है काबिल मिसाल के
कुत्ता  है पर नहीं है वफादार आदमी

अपना शिकार मार कर खाता है जानवर
खाता है रोटी छीन कर 'खुद्दार' आदमी

मंडी में सारे माल के कुछ दाम है मगर
बेदाम के खड़ा सरे बाजार आदमी

अपनी बनाई सभ्यता की भंवर में फंसा
मरता है झूठी शान की मझदार आदमी

दुनिया की भीड़ भाड़ में चेहरे अलग अलग
संसार तो नाटक है , बस किरदार आदमी  
 

Union Carbide Rap


Listen to a musical outrage on Bhopal Gas Disaster

गुरुवार, 10 जून 2010

मन और जीवन

जो चाहो वो हो ना पाता. ना चाहो वो होता -जीवन
मन की इच्छाओं को भूल  जा, हर दिन  इक समझौता - जीवन 

कभी मेघ को देख गगन में मन मयूर खिल खिल जाता है
लेकिन फिर तूफानी अंधड़, बस्ती कई डुबोता - जीवन

कभी ह्रदय की कोमल बातें बन कर कविता बहना चाहे
तभी सामने कोई पहुँच कर अपनी पीड़ा  रोता - जीवन

कभी किसी छुट्टी के दिन बस, मन कहता विश्राम करेंगे
तभी पडोसी की बुढिया माँ, मर जाती , ये होता -जीवन

अपने मन की करनी हो तो , मन में अपना कुछ मत सोचो
जो होता है हो जाने दो ,ये उपाय इकलौता - जीवन

बुधवार, 9 जून 2010

इति भोपाल प्रकरणम !!!

सोचता हूँ
क्या वो बड़ी त्रासदी थी ,जो १९८४ में हुई थी
या फिर वो जो उसके बाद हुई है पच्चीस सालों में
उस त्रासदी में एक शहर चपेट में था , भोपाल
एक खतरनाक गैस का बुन गया जाल ,
जो रात भर में हजारों घरों में पहुंची
और सोये हुए इंसानों के फेफड़ों में
जहर बन के जा घुसी

जो खुशकिस्मत थे सोये रह गए
बाकी बच गए
एक खौफनाक जिंदगी जीने के लिए
हवा पानी मिटटी फसल पशु
सब कुछ जहर बन गया
दिसंबर दो का वो दिन कहर बन गया

लेकिन उसके बाद हुये  शुरू
सरकारी तमाशे
घडियाली आंसुओं के बीच
बटने लगे बताशे
जिसे पकड़ा जाना था उसी दिन
वो वारन एन्डरसन
भगा दिया गया सरकारी विमान में
पहुँच गया अपने वतन
आज वो मौज में है
कहीं छुप कर नहीं
अमरीका की नाक न्यू योर्क में

सरकार ने ले ली कमान
या समझो खोल दी दुकान
पीड़ितों को न्याय दिलाने की
दो लाख जन्मे अजन्मे बच्चे
आठ लाख वयस्क ,जो मर गए तीन दिसम्बर को
बारह लाख जो मरते रहे किस्तों में
और असंख्य जो अब भी चुका रहें किस्ते
मरने तक की

सरकार ने फाइल सलटा दी
सैन्तालिश करोड़ डॉलर लेकर
और बन गयी दिलदार दिलासे देकर
लेकिन वो पैसा गया कहाँ
विधवाओं की शुरुवाती पेंसन दो सौ रुपैये महीने में ?
कम आय वालों  का फ़ाइनल निपटारा  पंद्रह सौ रुपैये में ?
और आखिर में
मरने वालों का फुल और फ़ाइनल औसत बासठ हजार
न मर पाने वालों का पच्चीस हजार
सवा दस लाख क्लैमों में
आधे निपट गए बिन पैसों के
क्योंकि वो गरीब सिद्ध नहीं कर पाए
कि उनके भी दर्द थे बाकी आधे जैसों के

यह था सरकारी न्याय आर्थिक रूप से
और जो बचा था गैर-जिम्मेवारी का दंड
उसका भी फैसला आखिर हो ही गया
भोपाल की कचहरी में , आज दो हजार दस में
सरकार की मंशा का मसला
जाहिर हो ही गया
दो दो साल की सजा कुछ बड़े लोगों को
जो उन्हें होनी नहीं इस जीवन काल में
जमानत ,तारीखें, अपील होती रहेंगी हर हाल में


और इस सरकारी त्रासदी के अन - उत्तरित प्रश्न
किसने भगाया वारन एन्डरसन को
और फिर क्यों नहीं माँगा गया वो अमरीका से
किसने दबा दी इनक्वारी की फाइल
कहाँ गए बचे हुए हजार करोड़ रुपैये
क्या मिला पीड़ितों की प्रभावित नस्लों को
क्यों नहीं दण्डित हुआ कोई

त्रासदी यह है मित्रों !
इस देश में इंसान की कीमत बहुत सस्ती है
और उस से भी सस्ती हमारे नेताओं की मानसिकता .
इति भोपाल प्रकरणम !!!

मंगलवार, 8 जून 2010

आईने में

अपना चेहरा जब भी देखा आईने में ,
कितना झूठा पाया खुद को आईने में .

झूठी शान दिखाता रहता दुनिया में ,
कितना हल्का खुद को लगता आईने में .

दुनिया कहती मुझको मैं कोई फ़रिश्ता हूँ ,
खुद को मैं क्यों पापी लगता आईने में .

अकड़ा फिरता हूँ ऊँची इज्जत की धुन में ,
बस नाटक सा करता दिखता आईने में .

शनिवार, 5 जून 2010

वक़्त

हम वक़्त से लड़ते रहे हर वक़्त बेवजह
पर वक़्त तो चलता रहा हर वक़्त बेवजह

हम बांध पाए कब समय का एक भी लम्हा
बांधी कलाई पर घडी हर वक़्त बेवजह

हम हर समय कहते, अभी तो वक़्त नहीं है
था वक़्त हर दम वक़्त , हम बेवक्त  बेवजह

हम सोचते रहते, वक़्त क्यों बीत रहा है
इस सोचने में बीत गया वक़्त बेवजह

हर जिंदगी दीवार पर लटकी हुई घडी
रुक जाये सांसों कि सुई किस वक़्त बेवजह

शुक्रवार, 4 जून 2010

कैंसर

संदेह होता है
ईश्वर की न्याय व्यवस्था पर
जब देखता हूँ किसी स्वस्थ इंसान को
जाते हुए कैंसर की गिरफ्त में

हँसता खेलता जीवन ,
पत्नी की ख़ुशी
बच्चों की खिलखिलाहट
माता पिता का संतोष
मित्रों की मस्ती
सब कुछ गायब हो जाता है

रह जाती है
एक उदास जिंदगी
बाथरूम में खुल कर रोने के बाद
 बाहर आकर
पत्नी की झूठी मुस्कराहट
स्कूल से लौट कर
सीधा खेल के लिए दौड़ लगाने वाले
बच्चों का सामान्य से अधिक समय देना
बात बात पर अपनी बीमारी
और जरूरतों के जिक्र की जगह
माता पिता की बातों से
शिकायतों का गुम हो जाना
होली दिवाली दिखने वाले
रिश्तेदारों का निरंतर आना जाना
बेदर्दी से घेर कर पार्टी लेने वाले
दोस्तों का बाहर चलने का आग्रह .

और इन सबके बाद
अपने अकेले का समय
सर पर हथोड़े से मारता है
क्या होगा पत्नी का ?
बच्चों का भविष्य ?
माता पिता का बुढ़ापा ?
बीमारी का कर्ज ?
और भी सैंकड़ों प्रश्न .

ईश्वर ! उत्तर दो !
क्या औचित्य है ?
एक पूरे परिवार को एक साथ दंड देने का .
कौन सा साझा पाप पुण्य है
कुछ समझ में नहीं आता ,
बस लगता है -
ये ईश्वर -विश्वर सब बकवास है
मनगढ़ंत कहानी है

मृत्यु से कौन डरता है !
डर लगता है जिंदगी से -
कैंसर के साथ.

गुरुवार, 3 जून 2010

सत्ता

हो रहा है आदमी हलाल देखिये
खा रहे हैं नोच कर दलाल देखिये,

चाटते  मलाई जो सत्ता में आ गए
आ न सके उनका मलाल देखिये,

सौ करोड़ लोग पसीना बहा रहे
पांच  सौ* का इत्र का रूमाल देखिये,

खून में सना है जो सीमा पे मर गया
टी वी पे मंत्रियों का जलाल देखिये .

(* सांसद)