Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

मंगलवार, 27 मार्च 2012

भीगी चादर और बहता समुद्र


भीगी चादर और बहता समुद्र 
( ये अनुवाद है अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध कवी ऐ. कनिंघम की एक लोकप्रिय अंग्रेजी कविता का , उन्ही की छंदबद्धता के साथ )

एक भीगी चादर और एक सागर 
और तेजी से भागती हवा 
जो भर देती है सरसराते पालों को 
और  मस्तूल को देती है झुका 
झुका देती है मस्तूल को , मेरे बच्चों 
जब उडती है एक चील की तरह भरपूर  
और ले जाती  है माल का जहाज , उड़ता सा 
प्यारे इंग्लॅण्ड की शरण से दूर 

' नर्म और सुहानी हवा'
- मैंने सुनी एक की आवाज 
मुझे दे दो खर्राटे लेती पवन 
और दूधिया लहरों की उछाल 
दूधिया लहरों की उछाल , मेरे बच्चों
माल वाहक जहाज है कसा पर मुक्त 
ये जल की दुनिया है हमारा घर 
और हम सब खुशियों से युक्त 

तूफ़ान सा उठा है , दूर सींग सी आकृति वाले चाँद पर 
और  दूर बादलों में बिजली उठी
पर ध्यान से सुनो ये संगीत , नाविकों 
हवा की फूंक से बंशी बजी 
हवा की फूंक से बंशी बजी , प्यारे बच्चों 
बिजली चमक कर यूँ मुक्त हो गयी 
थोथे ओक से बना अपना महल 
धरोहर में सागर की लहरें मिली 

A. Cunningham

"A wet sheet and a flowing sea"


WET sheet and a flowing sea,

  A wind that follows fast

And fills the white and rustling sail

  And bends the gallant mast;

And bends the gallant mast, my boys,
  While like the eagle free

Away the good ship flies, and leaves

  Old England on the lee.

  
"O for a soft and gentle wind!"

  I heard a fair one cry:
But give to me the snoring breeze

  And white waves heaving high;

And white waves heaving high, my lads,

  The good ship tight and free—

The world of waters is our home,
  And merry men are we.

  
There's tempest in yon hornèd moon,

  And lightning in yon cloud:

But hark the music, mariners!

  The wind is piping loud;
The wind is piping loud, my boys,

  The lightning flashes free—

While the hollow oak our palace is,

  Our heritage the sea.

बुधवार, 21 मार्च 2012

आदमी और जानवर

पाप पुण्य क्या है
मन की भावना है
क्या गलत या सही है
मान लिया बस वही है
ईश्वर ने बनाये हैं
धरती पर प्राणी सब
बोलते अलग अलग
अपनी ही वाणी सब
धर्म ग्रन्थ में लिखे
जीवन के नुस्खे
वो भी कहाँ एक हैं
धर्म भी अनेक हैं
सब विपरीत बात है
अपनी अपनी जात है
अपना विश्वास है
बाकी बकवास है
धर्म जब बदल जाता
सब कुछ बदल जाता
कल तक जो पाप था
करने में श्राप था
आज पुण्य बन गया
धर्म  शून्य बन गया
विश्व सारा बँट गया
टुकड़ों में कट गया
धर्म है ! अधर्म है !
कर्म या दुष्कर्म है !
कोई कुछ न जानता
फिर भी कुछ है मानता
इस लिए विरोध  है
जन जन में क्रोध है
कहीं कोई भक्त है
कहीं बहे रक्त है
झुण्ड झुण्ड लड़ रहे
मुंड मुंड पड़ रहे

जंगल के जानवर
हमसे तो ठीक हैं
धर्म ग्रन्थ पढ़ कर के
पीटते न लीक है
पेट भरना धर्म है
प्राण रक्षा धर्म है
बाकी जो हो रहा
सब स्वतन्त्र कर्म है


बुधवार, 7 मार्च 2012

दस का नोट

हम अलग अलग जगह
होते हैं अलग अलग व्यक्ति
इस बात का पता चलता है
एक दस के नोट से
फाइव स्टार होटल में
वेटर को टिप देने के लिए
दस क्या सौ  का नोट भी छोटा पड़ता है
लेकिन उडुपी के तम्बी  के लिए
दस का नोट  ज्यादा है
ढोंगी साधुओं को कम से कम पांच  सौ एक
लेकिन भूखे भिखारी के लिए सिक्का ढूंढते हैं
दस का नोट तो सोच के भी बाहर होता है
ऑटो वाला ग्यारह रुपैये मांगता है
तो देते हैं दस का नोट
कहते हैं एक छुट्टा नहीं है
और मिलजाती है रियायत
लेकिन ऐ सी वाली  मेरु टैक्सी के ९० रुपैये के बिल के सामने
देते हैं सौ रुपैये और कहते हैं कीप द चेंज
होटल का गेटकीपर ले लेता है
सलाम ठुकाई के १०  रुपैये
लेकिन गाडी का शीशा साफ़ करने वाले -
बेरोजगार से कहते हैं - माफ़ करो, छुट्टा नहीं है
पुराने अख़बार बेचते समय  रद्दी वाले से
लड़ते हैं वजन के लिए
दस रुपैये ज्यादा कमाने के लिए
दौ सौ रुपैये की फ़िल्मी किताब चट से खरीद लेते हैं
भले ही वो दस दिन बाद दस रुपैये में बिके
हम निरंतर बचाने की सोचते हैं दस का नोट
रेलवे प्लेटफोर्म पर , सब्जी भाजी की दुकान  पर
लेकिन सिनेमा हाल में लाइन लगाकर खरीदते हैं
पांच सौ की भी टिकटें
मित्रों दस का नोट वही होता है
उसकी कीमत भी वही होती है
लेकिन हमारी कीमत बदलती रहती है
जगह , समय और स्टेटस के आधार पर    


सोमवार, 5 मार्च 2012

समता - स्मृति


लोग बहुत आते हैं
लोग बहुत जाते हैं
लेकिन कुछ लोग यहाँ 
जाकर रह जाते हैं
 
आना भी जीवन है 
जाना भी जीवन है
कैसे जियें , जिसने  
जाना वो जीवन है
  
घर  की वो गरिमा थी
जीवन की महिमा थी
मंदिर की भक्ति थी
जीने की शक्ति थी
 
शाश्वत हंसी उनकी 
जिसमें  ख़ुशी सबकी
छोटे बड़े सारे
लगते उन्हें प्यारे 
 
कितना संघर्ष था 
फिर भी क्या हर्ष था
भारत क्या अमरीका
सबने उनसे सीखा 
 
जीवन की मुश्किलें 
हंस हंस के झेल लें  
दूसरों के दुःख फिर भी
मन में समेट लें  
 
मूरत थी ममता की
सूरत थी समता की
प्रेम की नदी थी वो
प्रेरणा थी क्षमता की
 
आज वो नहीं यहाँ
क्यों कर गयी कहाँ 
सब के दिलों में वो
फिर भी बसी यहाँ
 
स्मृति में आज भी
करती हैं राज भी
शाश्वत रहेंगी वो
उनकी अब  याद भी

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

शब्द और शोर

शब्द क्या है 
एक ध्वनि जो हम मुंह  से निकालते हैं 
कहाँ जाते है वो शब्द 
शायद तैरने लगते हैं 
हवा में 
आकाश में 
ब्रह्माण्ड में 
आइये ढूँढने निकलते  हैं उन शब्दों को 
जो कभी न कभी उच्चारित  हुए थे
वो महत्वपूर्ण शब्द 
और मैं निकल पड़ता हूँ ब्रह्माण्ड में 
शब्दों की खोज में 

अथाह सागर उमड़ रहा है 
शब्दों का 
किसे सुनूं किसे देखूं 
चलो उस छोर से शुरू करता हूँ 
जहाँ एक बहुत बड़ा शब्द समूह है 
ये तो संस्कृत मैं है 
चार अलग अलग ढेरियो में 
अरे ये तो चारों वेद हैं
जो प्रतिधव्नित हो रहें हैं 
उन चार ऋषियों -
अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा की आवाजों में 
शायद सबसे पुराने शब्द 
जो उत्पन्न हुए थे श्रृष्टि  के आरम्भ में
घोर शांति है यहाँ
भरपूर ज्ञान  

और ये कोलाहल के बीच किसके शब्द हैं 
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव ..........
ये तो योगीराज श्रीकृष्ण के शब्द हैं 
और ये कोलाहल 
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि का है
अशांति के बीच भी ज्ञान 

और ये कौन उपदेश कर रहा है 
कुछ राजनीति का पाठ पढ़ाते हुए
शायद चाणक्य है 
चन्द्रगुप्त से कुछ संवाद कर रहें हैं
नीति और ज्ञान 

तुम मुझे खून दो .........
मैं तुम्हे आजादी दूंगा 
समझ गया 
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के वो महान शब्द 
मैं धन्य हो गया 

और ये भजन के शब्द -
वैष्णव जन तो तेने कहिये .......
बापू ?
बापू के  शब्दों के बीच जाता हूँ 
ओह ..............ये क्या सुन लिया मैंने 
बापू के दर्दनाक शब्द ...........हे राम .............

अब ये कैसे कैसे शब्द आ रहें हैं 
विभाजन , हिन्दू, मुस्लमान, सिख 
मारो काटो एक भी बचने न पाए .....
मैं सिहर जाता हूँ 

और ये सब क्या है 
धर्म निरपेक्ष , आरक्षण , दलित ..........
जाट , ब्राह्मण , हरिजन .............
सवर्ण , अछूत, सरदार .........

और अब ये नए किस्म के शब्द .....
घोटाला , भ्रष्टाचार , बलात्कार 
वोट बैंक , आतंकवाद , आर डी एक्स 
दुर्गन्ध बढती जा रही 
शब्द सड़ते जा रहे हैं 
और मैं इस दलदल में फंसता जा रहा हूँ 
गूँज रहे हैं -
बाबरी , मुंबई हमला , कसाब 
अनशन , सद्भावना , रथ यात्रा 
रामलीला , जन्तर मन्तर , पुलिस , लाठी 
मुझे बचाओ कोई इस दलदल से 
हाँ इस 'दल' 'दल' से 
शब्दों के  नीचे मैं दब रहा हूँ 
सांस लेना मुश्किल हो रहा है
मैं भाग रहा हूँ 
निरंतर इस शोर से
वहाँ जहाँ शब्द न हो  

  



   



मंगलवार, 31 जनवरी 2012

ट्रीड मिल


 ट्रीड मिल
कभी आपने देखी है ट्रीड मिल
जी हाँ वही दौड़ने वाली मशीन 
नहीं नहीं वो नहीं दौड़ती 
हम दौड़ते हैं 
दरअसल वही दौड़ती है 
हम नहीं 
पर शायद नहीं 
दौड़ते तो हम भी हैं 
और दौड़ती वो भी है 
लेकिन हम वहीँ के वहीँ रह जाते हैं 
क्योंकि हम दौड़ते हैं 
मशीन की गति के सामान 
लेकिन उसकी विपरीत दिशा में 
हम कोशिश करते हैं 
कि वो हमें पीछे न ले जाएँ 
यही तो करते हैं हम जीवन भर 
वक़्त भागता रहता है 
निरंतर पीछे 
हम भागते रहते हैं निरंतर आगे 
अगर हम सुस्त हुए 
तो वक़्त हमें पीछे ले जाएगा 
और अंत में नीचे गिरा देगा 
आजीवन प्रयास करतें हैं 
वक़्त से आगे भागने का 
इसी प्रयास के कारण होते हैं हम जीवित 
बिना कहीं पहुंचे हुए भी 
कहीं थक हार कर 
हम तो रुक जायेंगे और गिर पड़ेंगे 
लेकिन फिर भी नहीं रुकेगी 
वक़्त की ये ट्रीड मिल  

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

एक और गणतंत्र दिवस

एक और गणतंत्र दिवस
ऐसे  देश का 
जहाँ गणना है प्रचुर 
लेकिन गण है नगण्य

कई अंग्रेजीदां 
इसे कहते हैं गनतंत्र भी
क्योंकि यहाँ चलती है 
बंदूके कभी पुलिस की जनता पर 
कभी नक्सलवादियों की पुलिस पर 

और इस महान गणतंत्र की संसद 
बैठ कर बहस करती है 
किस किस का भ्रष्टाचार रोकना चाहिए 
और किस किस का नहीं 
कोई कहता है प्रधानमंत्री को बाहर रखो 
कोई कहता है की संसद सदस्य  दूध के धुले हैं 
कोई कहता है की सरकारी नौकर कहाँ भ्रष्टाचार करता है

सरकार का यह मानना है कि
भ्रष्टाचार करती है सामाजिक संस्थाएं 
जो समाज सेवा के लिए चंदा इकठ्ठा करती है 
भ्रष्टाचार करते हैं उद्योगपति 
जो बड़े बड़े कारखाने लगाते हैं
भ्रष्टाचारी हैं किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल जैसे लोग 
जो सोये हुए देश को जगाने कि कोशिश करते हैं 
और सरकार का सोचना है कि 
भ्रष्टाचार करते हैं अन्ना जैसे नेता 
जो चुनाव में सरकारी दल का विरोध  करते हैं

ऐसे में कहाँ है गणतंत्र 
नगण्य गण का नगण्य तंत्र 
और इस महान दिन के उपलक्ष्य में 
देश के नाम सन्देश देती हैं राष्ट्रपति महोदया 
कि अगर फल ख़राब है तो फल को तोड़ कर हटाओ 
पेड़ क्यों काटते हो 
लेकिन अगर पेड़ में बीमारी फैली हो तो क्या करें ? 

बहरहाल छबीस जनवरी है 
टेलीविजन पर परेड  देखिये 
ज्यादा खुजली हो तो कहीं झंडोतोलन में हो आइये 
बाकी सारा दिन पड़ा है 
पिक्चर विक्चर देखिये 
मजा कीजिये !
गणतंत्र दिवस की बधाई !    


   

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

राम राज्य आएगा

ये वर्ष भी चला गया
भारत की छाती पर
भ्रष्टाचार की दलदल को खूब मला गया

राजा, कलमाड़ी अब
बने सब तिहाड़ी अब
बचे हुए बाकी भी
अगाड़ी पिछाड़ी अब
खाते मलाई- अब दूध जला गया

अन्ना के अनशन से
भारत के जन जन से
क्रांति एक जग उठी
जन जन के तन मन से
एक शख्स देश को पूरा हिला गया

अगला वर्ष आएगा
लोकपाल लाएगा
भ्रष्ट राज   भागेगा
राम राज्य आएगा
ऐसी उम्मीद है  सब को दिला गया





सोमवार, 19 दिसंबर 2011

ये संसार एक रंगमंच - विलियम शेक्सपियर की एक कविता का हिंदी रूपांतर


ये संसार एक  रंगमंच 
(विश्व प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर ने अंग्रेजी में कवितायेँ भी लिखी  थी. उनकी ही एक कविता का हिंदी रूपांतर ) 

ये संसार एक रंगमंच है 
सारे स्त्री पुरुष मात्र अभिनयकर्ता 
सबका अपना अपना आगमन और प्रस्थान 
हर व्यक्ति करता है बहुत सारे पात्र , अपने समय में 
उसका काम गुजरता है सात कालों में . पहला शिशु 
जो रो रो कर उलटी करता है अपनी दाई की गोद में 
और फिर वो स्कूली बच्चे का  रुआंसा प्रलाप , बस्ता लटकाए हुए 
सुबह का चमकता हुआ चेहरा , लेकिन घोंघे जैसी चाल 
स्कूल न जाने का मन . और फिर वो प्रेमी 
भट्टी की तरह निः स्वासें भरता, किसी प्रेम गीत को सुनकर
जो था उसकी प्रियतमा की भौहों के लिए . और फिर एक सैनिक 
विचित्र शपथों को धारे और तेंदुए सी दाढ़ी के साथ 
स्वाभिमान के लिए ईर्ष्यालु , लड़ने को तत्पर 
बुलबुले सी इज्जत की तलाश में 
चाहे वो तोप के मुंह में ही हो . और फिर वो न्यायाधीश 
अच्छी खासी गोल तोंद लिए , मानो मोटा ताजा मुर्गा हो 
आँखें गंभीर और दाढ़ी खास ढंग से कटी हुई 
बुद्धि का पैनापन लिए , आधुनिक उदाहरणों के साथ
वो अपना किरदार निभाता है . उम्र का छठा  काल बदलता है 
ढीले ढाले सलवट भरे  पायजामों   में 
नाक पर रखा चश्मा , और साथ में एक बटुआ 
और उसकी सहेज कर रखी जुराबें , जो बहुत चौड़ी थी 
उसके दुबले पतले पैरों के लिए , और उसकी वो मर्दानी आवाज -
बदल गयी बच्चे की तीखी पैनी आवाज में  , जो बजती है 
सीटियों की तरह उसकी आवाज में . और अब अंतिम दृश्य 
समापन उसके  विचित्र  घटनाक्रम से भरे इतिहास का 
उसका दूसरा बचपन और होने न होने की स्थिति 
दंतहीन , चक्छु हीन , स्वाद हीन , सर्वस्व हीन 

All the World's a Stage by William Shakespeare

All the world's a stage,
And all the men and women merely players;
They have their exits and their entrances,
And one man in his time plays many parts,
His acts being seven ages. At first, the infant,
Mewling and puking in the nurse's arms.
Then the whining schoolboy, with his satchel
And shining morning face, creeping like snail
Unwillingly to school. And then the lover,
Sighing like furnace, with a woeful ballad
Made to his mistress' eyebrow. Then a soldier,
Full of strange oaths and bearded like the pard,
Jealous in honor, sudden and quick in quarrel,
Seeking the bubble reputation
Even in the cannon's mouth. And then the justice,
In fair round belly with good capon lined,
With eyes severe and beard of formal cut,
Full of wise saws and modern instances;
And so he plays his part. The sixth age shifts
Into the lean and slippered pantaloon,
With spectacles on nose and pouch on side;
His youthful hose, well saved, a world too wide
For his shrunk shank, and his big manly voice,
Turning again toward childish treble, pipes
And whistles in his sound. Last scene of all,
That ends this strange eventful history,
Is second childishness and mere oblivion,
Sans teeth, sans eyes, sans taste, sans everything.

रविवार, 18 दिसंबर 2011

मार्था -वाल्टर डी ला मेर की सुप्रसिद्ध अंग्रेजी कविता "मार्था" का हिंदी अनुवाद


मार्था 
( अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध कवि वाल्टर डी ला मेर की सुप्रसिद्ध अंग्रेजी कविता "मार्था" का हिंदी अनुवाद , उसी छंद बद्धता केसाथ )

एक बार किसी ज़माने में 
बार बार न जाने कितनी बार 
मार्था सुनाती कहानियां
उस झाड़ीदार घाटी में हर बार 

उसकी वो मटमैली लेकिन स्वच्छ आँखें 
उनमे देखो तो  मानो की कहानियां
सुनाती उनकी सुन्दरता 
शांत जैसे सपनों की रानियाँ  
 
वो बैठ जाती, उसके  दोनों  पतले हाथ 
उसके मुड़े हुए घुटनों को घेरते  
और हम अपनी कोहनियों के सहारे पसरे
आराम से उसे एकटक देखते  

उसकी आवाज और उसकी छोटी सी ठुड्डी 
उसका छोटा सा लेकिन गंभीर सुन्दर सर 
ये सब लगता था जैसे अर्ध अर्थ है 
उसके शब्दों का अक्सर 

और एक बार किसी ज़माने में 
मानों की रात्रि में देखे किसी  स्वप्न की तरह  
परियां और काल्पनिक पात्र बाहर घूमते
हरे प्रकाश में , हरी पत्तियों की तरह 

और उसकी सुन्दरता कहीं दूर तक 
जैसे खो जाती , उसकी आवाज आते आते  
तब तक जब तक वो झाड़ियाँ , वो ग्रीष्म का सूर्य 
और सब कुछ कहीं खो जाते 

सब कुछ विलुप्त और विस्मृत 
जैसे बादल आकाश  की ऊँचाई में 
हमारे ह्रदय थे शांत और निस्तब्ध
एक उम्र बीत गयी , समय की गहराई में 
 

Martha by Walter de la Mare
"Once...Once upon a time..."
Over and over again,
Martha would tell us her stories,
In the hazel glen.

Hers were those clear gray eyes
You watch, and the story seems
Told by their beautifulness
Tranquil as dreams.

She'd sit with her two slim hands
Clasped round her bended knees;
While we on our elbows lolled,
And stared at ease.

Her voice and her narrow chin,
Her grave small lovely head,
Seemed half the meaning
Of the words she said.

"Once...Once upon a time..."
Like a dream you dream in the night,
Fairies and gnomes stole out
In the leaf-green light.

And her beauty far away
Would fade, as her voice ran on,
Till hazel and summer sun
And all were gone:--

All fordone and forgot;
And like clouds in the height of the sky,
Our hearts stood still in the hush
Of an age gone by.

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

लोरी (विलिअम ब्लेक की रचना "क्रेडल सोंग ")


लोरी 

(अंग्रेजी के मशहूर कवि विलिअम ब्लेक की अलग तरह की रचना है "क्रेडल सोंग " . ये कविता हिंदी में प्रचलित लोरी का ही रूप है . प्रस्तुत है उसका हिंदी अनुवाद पूरी छंद बद्धता के साथ )

सो जा सो जा , सुन्दर गुडिया  
रातों के सपनों की दुनिया 
सो जा सो जा , जब तू सोती 
नन्हे दुखों को तू खोती

प्यारी बिटिया के चेहरे पर 
दिखती भोली इच्छाएं पर 
सुख और मुस्कानों की परतें 
भोली और नन्ही  शरारतें 

तेरी कोमलता का अनुभव 
तेरी हंसी सुबह का वैभव 
गालों और छाती पर करता 
नन्हा ह्रदय धड़कता रहता
  
धीरे से तेरी शैतानी 
नन्हे सुप्त ह्रदय में आनी
सुप्त ह्रदय निद्रा तोड़ेगा 
तब अँधियारा भी दौड़ेगा  


Cradle Song
Sleep, sleep, beauty bright,
Dreaming in the joys of night;
Sleep, sleep; in thy sleep
Little sorrows sit and weep.

Sweet babe, in thy face
Soft desires I can trace,
Secret joys and secret smiles,
Little pretty infant wiles.

As thy softest limbs I feel
Smiles as of the morning steal
O'er thy cheek, and o'er thy breast
Where thy little heart doth rest.

O the cunning wiles that creep
In thy little heart asleep!
When thy little heart doth wake,
Then the dreadful night shall break. 


William Blake 


शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

डेफोडिल्स


डेफोडिल्स
(पृकृति के महान कवि विलियम वर्ड्सवर्थ की एक महान कृति  डेफोडिल्स का हिंदी में छंद के साथ अनुवाद )

मैं अकेला घूम रहा था , जैसे कोई बादल
उड़ता है घाटियों और पहाड़ों पर 
अचानक मुझे दिखा एक झुण्ड - एक दल 
डेफोडिल फूलों का मगर 
झील के पास , पेड़ों के नीचे 
हिलते , नाचते जैसे पवन खींचे 

सितारों की चमक से चमकदार 
जैसे आकाश गंगा में चमकते 
एक असीम धारा में लगातार 
एक खाड़ी के हाशिये से लगते 
एक साथ दिखे कोई दस हजार 
नाचते सर हिलाते बार बार  

उनके पास ही लहरें कर रही थी नृत्य  
लेकिन उन्हें मात  दे रहे थे, ये फूलों के झुण्ड 
एक कवि के लिए क्या होगा इससे मधुर सत्य 
जब हो साथ में ऐसा मनमोहक झुण्ड 
मैंने देखा और देखता रहा , बिना ज्यादा विचारे 
जीवन में क्या संपदा लायेंगे ये  फूलों के झुण्ड प्यारे

प्रायः जब भी सोफे पर लेटता हूँ 
कभी रिक्त कभी चिंतित मन में 
अपने अंतर में उनकी चमक  देखता हूँ
ख़ुशी दे जाते हैं अकेलेपन में 
और मेरा ह्रदय खुशियों से भरता है
मनो डेफोडिल्स के साथ नृत्य करता है    

विलियम वर्ड्सवर्थ


Daffodils 

I wandered lonely as a cloud
That floats on high o'er vales and hills,
When all at once I saw a crowd,
A host, of golden daffodils,
Beside the lake, beneath the trees,
Fluttering and dancing in the breeze.

Continuous as the stars that shine
And twinkle on the milky way,
They stretch'd in never-ending line
Along the margin of a bay:
Ten thousand saw I at a glance
Tossing their heads in sprightly dance.

The waves beside them danced, but they
Out-did the sparkling waves in glee:--
A Poet could not but be gay
In such a jocund company!
I gazed--and gazed--but little thought
What wealth the show to me had brought;

For oft, when on my couch I lie
In vacant or in pensive mood,
They flash upon that inward eye
Which is the bliss of solitude;
And then my heart with pleasure fills
And dances with the daffodils. 


William Wordsworth 


गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

सखियाँ


जैसे मानव तन की सुन्दरता होती हैं अँखियाँ
वैसे जीवन की सुन्दरता होती हैं सखियाँ 
 
घर अपना होता उसमे घरवाले अपने होते 
फिर भी सब से छुपे हुए मन के सपने होते
उन सपनों को सुनने और सुनाने को  सखियाँ
 
मन में ठेस कभी लगती तो अन्दर ही रो लेतें 
फिर भी कुंठा के अनचाहे बीज कहीं बो लेते
उस कुंठित मन की पीड़ा को धोने को  सखियाँ
 
कभी शरारत करने को दिल चाहे जब अपना
कोई चुलबुली शैतानी करने का हो सपना
तब फिर अपना बने निशाना प्यारी वो सखियाँ

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

एक थप्पड़

थप्पड़
जिसका कोई विशेष अस्तित्व नहीं होता
जब तक
उसके मारने वाले का
या उस गाल का
कोई विशेष अस्तित्व नहीं हो
जिस पर वो पड़ा था

रोज थप्पड़ खाते हैं
गरीब रिक्शेवाले
बेरोजगार युवक
असहाय आरोपी
पुलिस थाने में
वर्दी वाले पुलिसिया हाथों से
चुपचाप आंसू पोंछ कर
लग जाते हैं फिर से अपने काम में
क्योंकि थप्पड़ मारना पुलिस का स्वभाव  है
और उन गरीबों की नियति
मीडिया भी तब तक
न कुछ देखती
न कुछ दिखाती
जब तक पिटाई से थाने में
किसी गरीब की मौत न हो जाए   

लेकिन ये थप्पड़ कुछ अलग था
ये थप्पड़ था एक आम आदमी का
जो गुस्से में भरा हुआ था
गुस्सा गरीबी का
गुस्सा महंगाई का
गुस्सा सरकारी भ्रष्टाचार का
गुस्सा उसकी अपनी मामूली अपेक्षा का
गुस्सा उसकी  उपेक्षा का
और वो गाल था - एक अति खास आदमी का
एक राजनैतिक नेता का
देश के चुने हुए एक नायक का
सरकार को चलाने वाली मशीन का

और ये एक थप्पड़ बन गया
एक मुद्दा राष्ट्रीय बहस का
मीडिया को मिल गया -
एक और दिन का मसाला
राजनैतिक दलों को मिल गया बहाना -
संसद में चल रहे महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान हटाने का
गाल वाले नेताजी के दल को मिल गया -
एक कारण सड़कों पर तोड़ फोड़ का

कोई नहीं पूछेगा कि
इस थप्पड़ के बदले कितने थप्पड़ मिले
हरविंदर सिंह को
अगली खबर बनेगी अगर
हरविंदर सिंह मरे तो -
वर्ना ये किस्सा ख़त्म !
कल से कोई नयी घटना ढूंढें !

सोमवार, 14 नवंबर 2011

भीड़ में इकाई हम


आज मैं  ग़रीब हूँ 
बिगड़ा नसीब हूँ 
दस  लाख रुपैये हैं
बस केवल रुपैये है  
दस  कम नहीं होते 
फिर भी  ग़म नहीं धोते 
कल मैं अमीर था 
जेब से फ़कीर था 
गाँव में जब रहता था 
मजे में रहता था 
झोपडी  इक  कच्ची थी 
लेकिन जो सच्ची   थी 
झोपडी के बाहर हल था
मुश्किलों  का हल था 
दूर कहीं दस बीघा खेत था 
पेड़ पौधे और फसलों  समेत था
जिसको मैं पालता था  
जिसमे मैं डालता था 
थोड़े से बीज और ढेर सा पसीना
गर्मी हो सर्दी हो या बारिश का महीना  
और फिर कटाई पर , उत्सव मनाते थे
रातों को बैठ कर सब  बिरहा सुनाते थे
बैलों को हांक कर राजा से चलते थे
गोबर बुहार कर चूल्हों पर मलते थे 
पत्नी जब मिटटी की
हांडी चढ़ाती थी 
बाजरे की खिचड़ी की 
खुशबू फ़ैल जाती  थी
खा कर जब मूंज की 
खटिया पर सोते थे 
थके हारे जीवन के 
सपने संजोते थे
फिर ये क्या हुआ अब है 
लुट गया मेरा सब है
दस बीघा बेच कर 
छोड़ दिया गाँव घर 
रुपैये ये पायें हैं 
शहर में आये हैं 
बदले में खेत के 
शहर में  इस रेत के  
दस फुट की एक दुकान 
भाड़े का एक मकान
मुश्किल से आएगा 
घर को चलाएगा 
होकर के शहरों  के
गूंगों के बहरों के 
आकर करीब हम 
कितने ग़रीब हम
क्या दें दुहाई हम 
भीड़ में इकाई हम    
  

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

अनचुना रस्ता ( अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि रॉबर्ट फ्रोस्ट की मशहूर कविता का हिंदी अनुवाद )



( अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि रॉबर्ट  फ्रोस्ट की मशहूर कविता का हिंदी अनुवाद )

उस जंगल से जाते थे  दो रस्ते 
हाय, मैं दोनों पर नहीं जा सकता था 
और एक यात्री की तरह देखता था वो रस्ते 
फिर एक रस्ते को देखा दूर तक, अहिस्ते अहिस्ते 
जहाँ वो मुड कर कहीं नीचे जा सकता था 

फिर वैसे ही नजर उठा कर देखा दूसरा रस्ता
जो शायद कुछ ज्यादा जंच रहा था
क्योंकि  ज्यादा हरा और कम दलित था वो रस्ता
जहाँ तक सवाल था चुनने का एक रस्ता 
एक से ही थे , मन में ये जंच रहा था    

और उस सुबह दोनों रस्तों में से एक को चुनना था 
दोनों रस्तों पर पड़ी पत्तियां कलुषाई नहीं थी 
मैंने  पहले को भविष्य के लिए छोड़ , उस दिन नहीं चुना था
कोई भी रस्ता कैसे कहीं जा पहुँचता है , ये सुना था 
कभी यहाँ वापस आऊँगा , ये उम्मीद भी नहीं थी  

आज ये बताता हूँ एक निःश्वास के साथ तुम्हे 
आज उस बात को बीत गयी उम्रे दराज  
दो अलग अलग रस्ते दिखे  एक जंगल में मुझे 
जो रस्ता कम दला गया था, मैंने चुना था उसे
और शायद उसी निर्णय का परिणाम है मेरा आज   


The Road Not Taken

Two roads diverged in a yellow wood,
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;



Then took the other, as just as fair,
And having perhaps the better claim
Because it was grassy and wanted wear,
Though as for that the passing there
Had worn them really about the same,



And both that morning equally lay
In leaves no step had trodden black.
Oh, I marked the first for another day!
Yet knowing how
 way leads on to way
I doubted if I should ever come back.



I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I,
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.
 


Robert Frost