Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

बुधवार, 7 मार्च 2012

दस का नोट

हम अलग अलग जगह
होते हैं अलग अलग व्यक्ति
इस बात का पता चलता है
एक दस के नोट से
फाइव स्टार होटल में
वेटर को टिप देने के लिए
दस क्या सौ  का नोट भी छोटा पड़ता है
लेकिन उडुपी के तम्बी  के लिए
दस का नोट  ज्यादा है
ढोंगी साधुओं को कम से कम पांच  सौ एक
लेकिन भूखे भिखारी के लिए सिक्का ढूंढते हैं
दस का नोट तो सोच के भी बाहर होता है
ऑटो वाला ग्यारह रुपैये मांगता है
तो देते हैं दस का नोट
कहते हैं एक छुट्टा नहीं है
और मिलजाती है रियायत
लेकिन ऐ सी वाली  मेरु टैक्सी के ९० रुपैये के बिल के सामने
देते हैं सौ रुपैये और कहते हैं कीप द चेंज
होटल का गेटकीपर ले लेता है
सलाम ठुकाई के १०  रुपैये
लेकिन गाडी का शीशा साफ़ करने वाले -
बेरोजगार से कहते हैं - माफ़ करो, छुट्टा नहीं है
पुराने अख़बार बेचते समय  रद्दी वाले से
लड़ते हैं वजन के लिए
दस रुपैये ज्यादा कमाने के लिए
दौ सौ रुपैये की फ़िल्मी किताब चट से खरीद लेते हैं
भले ही वो दस दिन बाद दस रुपैये में बिके
हम निरंतर बचाने की सोचते हैं दस का नोट
रेलवे प्लेटफोर्म पर , सब्जी भाजी की दुकान  पर
लेकिन सिनेमा हाल में लाइन लगाकर खरीदते हैं
पांच सौ की भी टिकटें
मित्रों दस का नोट वही होता है
उसकी कीमत भी वही होती है
लेकिन हमारी कीमत बदलती रहती है
जगह , समय और स्टेटस के आधार पर    


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