आज मैं ग़रीब हूँ
बिगड़ा नसीब हूँ
दस लाख रुपैये हैं
बस केवल रुपैये है
दस कम नहीं होते
फिर भी ग़म नहीं धोते
कल मैं अमीर था
जेब से फ़कीर था
गाँव में जब रहता था
मजे में रहता था
झोपडी इक कच्ची थी
लेकिन जो सच्ची थी
झोपडी के बाहर हल था
मुश्किलों का हल था
दूर कहीं दस बीघा खेत था
पेड़ पौधे और फसलों समेत था
जिसको मैं पालता था
जिसमे मैं डालता था
थोड़े से बीज और ढेर सा पसीना
गर्मी हो सर्दी हो या बारिश का महीना
और फिर कटाई पर , उत्सव मनाते थे
रातों को बैठ कर सब बिरहा सुनाते थे
बैलों को हांक कर राजा से चलते थे
गोबर बुहार कर चूल्हों पर मलते थे
पत्नी जब मिटटी की
हांडी चढ़ाती थी
बाजरे की खिचड़ी की
खुशबू फ़ैल जाती थी
खा कर जब मूंज की
खटिया पर सोते थे
थके हारे जीवन के
सपने संजोते थे
फिर ये क्या हुआ अब है
लुट गया मेरा सब है
दस बीघा बेच कर
छोड़ दिया गाँव घर
रुपैये ये पायें हैं
शहर में आये हैं
बदले में खेत के
शहर में इस रेत के
दस फुट की एक दुकान
भाड़े का एक मकान
मुश्किल से आएगा
घर को चलाएगा
होकर के शहरों के
गूंगों के बहरों के
आकर करीब हम
कितने ग़रीब हम
क्या दें दुहाई हम
भीड़ में इकाई हम
बहुत सुंदर भावों को शब्दों मे बड़ी खूबसूरती से पिरोया है आपने शुभकामनायें समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंखटिया पर सोते थे
जवाब देंहटाएंथके हारे जीवन के
सपने संजोते थे
वाह क्या बात लिखी
धन्यवाद गुड्डो दादी चिकागो से
समय समय की बात है भौतिक सुखों के आगे कुछ दिखाई नहीं देता सही ह्कः आपने अब हम गरीब है .....
जवाब देंहटाएंसच को आपने कितनी खूबसूरती से शब्दों में ढाला है.
जवाब देंहटाएंआज मैं ग़रीब हूँ
जवाब देंहटाएंबिगड़ा नसीब हूँ
दस लाख रुपैये हैं
बस केवल रुपैये है
दस कम नहीं होते
फिर भी ग़म नहीं धोते
कल मैं अमीर था
जेब से फ़कीर था
गाँव में जब रहता था
मजे में रहता था
झोपडी इक कच्ची थी
लेकिन जो सच्ची थी
bahut sundar aur saarthak post , badhai.