मेरे कमरे के पूरब में एक खिड़की है 
जिससे सूरज छन छन कर आया करता था
अपनी किरणों से सर मेरा सहला कर 
तडके ही मुझको रोज जगाया करता था 
कमरे के दक्षिण में भी एक खिड़की है 
जिसके बाहर एक नीम पेड़ का झुरमुट था 
जब दूर क्षितिज पर सूरज अस्त हुआ करता 
कलरव करता चिड़ियों का उस पर जमघट था 
पूनम की रातों को मेरे कमरे में 
दूधिया चांदनी खिड़की से भर आती थी 
बरसातों में इक इन्द्रधनुष का टुकड़ा 
दिखता, जब बूँदें गीत सुनाती थी 
ये सब बातें इतिहास हो चुकी है अब तो 
अब पहले जैसा नहीं रहा मेरा कमरा 
कमरे के बाहर सब कुछ बदल गया है अब 
कहने को अब भी है वो ही मेरा कमरा 
पूरब की खिड़की के बाहर अब दिखती है 
दस मंजिल से भी ऊंची एक इमारत अब 
सूरज,चंदा,किरणे,पानी और इन्द्रधनुष 
शहरों के जीवन में बन गए तिजारत सब 
दक्षिण की खिड़की के बाहर का नीम पेड़ 
बेदर्दी से जाने किसने है काट दिया 
वो झुरमुट, वो जमघट , चिड़ियों का कोलाहल 
जैसे जमीन के अन्दर ही है गाड़ दिया 
मुझसे बिन पूछे लूट ले गए मुझसे वो 
वो मेरे कमरे में छाई मेरी खुशियाँ 
मेरे हिस्से का आसमान भी छीन लिया
मुझसे छीनी खिड़की के बाहर की दुनिया
 
 
अब खिडकी से आसमां नहीं कंक्रीट का जंगल दिखता है....बहुत अच्छी रचना..
जवाब देंहटाएंकलियुग है। कल पुरजों का युग। शनै: शनै: प्रकृति लुप्त होती नजर आ रही है। परिणाम सामने है। अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
जवाब देंहटाएंलो जी हम तो आपके घर का पता पूछ रहे थे...पता चला सब लुट ही चूका है. यही है कलयुगी कमरे की हालत.
जवाब देंहटाएंबहुत भाव भीनी रचना.
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंआज के दौर में हो रहे पर्यावरण के ह्रास को आपकी कविता ने शब्द दिए हैं...बेहतरीन ढंग से अभिव्यक्ति दी है...वाह...बधाई...
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
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