Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

डरा डरा आदमी

रात के अँधेरे में
डरा डरा आदमी
अंगुली पकड़ के चल रहा
मन के भय के भूत की
डरता है मन क्यों?
शायद अँधेरे से !

फिर बिजली जब कड़कती है
अँधेरा भाग खड़ा होता है
पर मन का भय
भागने की जगह
अट्टहास सुनकर
और बड़ा होता है
मन शायद डरता है -
शायद आवाज से !

अब सब कुछ शांत है
मौन सब , निस्तब्ध  सब
तब भी अशांत है
आदमी का मन क्यों?
अब डर की बात क्या ?
शायद भयभीत है -
इस गहन मौन से !

प्रश्न खड़ा रह गया
आखिर भयभीत क्यों ?
रात के अँधेरे में ,
दामिनी की चमक में ,
गरजती आवाज में ,
परम गहन चुप्पी में
आदमी के मन में
भय इतना गहरा क्यों?

शहरों की सड़कों पर
शेर नहीं होते हैं
सांप नहीं होते है
और नहीं होता है
जंगली कोई जानवर
निःसंदेह सत्य है
आदमी नहीं डरता
शहर की सड़कों पर
जंगल के जीव से

प्रश्न अब कठिन है
प्रश्न है सरल भी
प्रश्न आदमी है
उत्तर भी आदमी है
रात के अँधेरे में
शहर की सड़क पर
आदमी बस डरता है
आदमी की जात से

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सशक्‍त रचना, यह सत्‍य है कि आदमी के पास केवल आदमी का ही डर पसरा हुआ है।

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  2. बेहतरीन रचना………………आज का सच कह दिया।

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  3. रात के अँधेरे में
    शहर की सड़क पर
    आदमी बस डरता है
    आदमी की जात से

    -शायद जानता है कि इस खतरनाक कोई जीव नहीं...

    बहुत शानदार रचना!

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