मैंने यहाँ खुला रख छोड़ा है , अपने मन का दरवाजा! जो कुछ मन में होता है , सब लिख डालता हूँ शब्दों में , जो बन जाती है कविता! मुझे जानना हो तो पढ़िए मेरी कवितायेँ !
Mahendra Arya
मंगलवार, 30 अगस्त 2022
गुलदस्ता अंक -६
बुधवार, 24 अगस्त 2022
डरा डरा आदमी
मंगलवार, 26 जुलाई 2022
ये कैसी बरसात
ये कैसी बरसात
आज से १७ साल पहले आज ही का दिन था. दोपहर मे पत्नी का फोन आया कि बारिश बहुत ज्यादा है, आप घर आ जाओ! मैंने थोड़ी देर बाद दफ्तर बंद कर दिया, और सब की छुट्टी कर दी. आधी घंटे के अंदर मेरे सामने की सड़क पूरी नदी बन गयी. हर व्यक्ति अपनी गाड़ी को सड़क के बीच मे ही छोड़ कर कहीं ना कहीं शरण ढूँढने लगा. मैंने शरण ली एक दूर के रिश्तेदार के घर. घर पर बस महिलाएं थी, पुरुष कहीं और फंसे थे. पूरी रात काटी एक अनजान घर मे. उनका दिया भोजन खाया. लगभग पूरी मुंबई की यही स्थिति थी. जो मेरी तरह किस्मत वाले थे उन्हे किसी ना किसी घर मे शरण मिली;बाकी लाखों लोग स्टेशन पर, गाड़ियों मे कहीं भी रात गुजार रहे थे. बहुत भयावह थी वो रात. प्रलय की परिकल्पना मिल गयी थी. ऐसे मे लिखी मैंने ये कविता, जो आज अपने मित्रों से साझा कर रहा हूँ. आप भी अपने अनुभव साझा करें.
सोमवार, 25 जुलाई 2022
गुलदस्ता अंक ३
गुलदस्ता अंक ३
दोस्तों आपका हार्दिक धन्यवाद ! आपने पहले के दोनो गुलदस्तों मे सजी मेरी कविताओं को पसंद किया; आपके भरपूर प्रेम को समर्पित मेरा ये तीसरा गुलदस्ता! प्रतिक्रिया की प्रतिक्षा रहेगी!
शनिवार, 16 जुलाई 2022
गुलदस्ता अंक -२
दोस्तों ! प्रस्तुत है मेरी कविताओं का एक और गुलदस्ता ! आशा है ये भी आपको पसंद आएगा ! प्रतिक्रिया जरूर देवें !
शुक्रवार, 15 जुलाई 2022
मक्खी
मक्खी
मैं नन्ही सी मक्खी
तुम विशाल मानव
मेरा अस्तित्व
तुम्हारे नाख़ून का चौथाई !
जैसा भी है , जितना भी है
लेकिन कहाँ मानते हो तुम
मेरे अस्तित्व को !
इसीलिए तुमने
मुहावरे गढ़ लिए
बैठे बैठे मक्खी मारना !
कभी मारी है तुमने कोई मक्खी ?
नहीं न ?
जरा मार कर देखो !
मैं तुम्हारी नाक पर बैठती हूँ
तुम हाथ से झटक देते हो
मैं फिर बैठती हूँ
तुम फिर झटक देते हो
ये युद्ध चलता है -
मेरा तुम्हारा
लेकिन तुम लाचार हो जाते हो
खीज जाते हो !
मैं खिलखिला कर हंसती हूँ
और फिर थोड़ा घूमने निकल जाती हूँ !
मैं दिन भर तुमसे लड़ सकती हूँ
तुम क्षण भर में थक जाते हो
तुम्हारे आस पास कहीं भी बैठ जाऊं
तुम ताक में होते
हो
मुझे एक झपट्टे में मिटा देने को
आस पास हाथ मारते रहते हो
लेकिन कुछ हाथ नहीं आता
क्यों सही है न ?
सुना था
तुम अपने बड़े बड़े शत्रुओं से लड़ने को
हथियार बनाते हो
तोप तलवार तमंचे
दूर से ही उन्हें ख़त्म करने के लिए
लेकिन नहीं चलते तुम्हारे हथियार मुझ पर भी !
मेरा नन्हा होना ही काम आता है !
आजकल बना लिया एक नया शस्त्र तुमने
बैडमिंटन नुमा
पहले तो लगा - तुम खेल रहे हो
फिर समझ में आया
ये तो तुम्हारा नया खुनी खेल है
अपने छोटे दुश्मनों को
बिजली से जला जला कर मारने के लिए
जब कोई कीट उन तारों से टकरा कर चिपक जाता है
और तड़प तड़प कर मरता है
तुम्हे उस फड़फड़ाने में
उस दर्दनाक स्वर में आनंद आता है !
लेकिन एक बार फिर
तुम मुझसे हारते हो
तुम सिर्फ मच्छर मारते हो
क्योंकि वो तुम्हारे पास आते हैं
स्वार्थवश
तुम्हारा खून पीने को
वो उड़ नहीं पाते
क्योंकि तुम्हारा स्वार्थी खून उनमे होता है
मेरा क्या बिगाड़ोगे
मैं तो बस तुमसे खेलती हूँ
तुम्हे स्पर्श करती हूँ
तुम्हारा हथियार बहुत धीमा है
मेरी गति बहुत तेज !
मुझसे बचने का एक ही साधन है
तुम अपने तन को सम्भालो
कोई बचाव वाला रसायन लगा लो
मैं नहीं आऊँगी तुम्हारे पास
क्योंकि मुझे नफरत है
तुम्हारे नकली आवरण से !
वरना
कुछ कह सको तो कहो, वरना हम चेहरे पे भी पढ़ लेंगे
जरा सा वक़्त चाहिए, ख्वाहिश और कुछ नहीं
दे सको तो दो, वरना अकेले ही आगे बढ़ लेंगे
थोड़ी सी मुस्कुराहट और थोड़ा प्रेम चाहिए
असली हो तो दो, वरना तस्वीर हम ही मढ़ लेंगे
बुधवार, 6 जुलाई 2022
मित्रों , आज पेश करता हूँ , मैं एक नयी श्रृंखला - गुलदस्ता। हर अंक में मेरी कुछ कवितायेँ आप सुनेंगे - मुझसे ही ! निःसंकोच अपनी प्रतक्रिया लिखियेगा !