Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

मक्खी

मक्खी

 


मैं नन्ही सी मक्खी

तुम विशाल मानव

मेरा अस्तित्व

तुम्हारे नाख़ून का चौथाई !

जैसा भी है , जितना भी है

लेकिन कहाँ मानते हो तुम

मेरे अस्तित्व को !

 

इसीलिए तुमने

मुहावरे गढ़ लिए

बैठे बैठे मक्खी मारना !

कभी मारी है तुमने कोई मक्खी ?

नहीं न ?

जरा मार कर देखो !

 

मैं तुम्हारी नाक पर बैठती हूँ

तुम हाथ से झटक देते हो

मैं फिर बैठती हूँ

तुम फिर झटक देते हो

ये युद्ध चलता है -

मेरा तुम्हारा

लेकिन तुम लाचार हो जाते हो

खीज जाते हो !

मैं खिलखिला कर हंसती हूँ

और फिर थोड़ा घूमने निकल जाती हूँ !

 

मैं दिन भर तुमसे लड़ सकती हूँ

तुम क्षण भर में थक जाते हो

तुम्हारे आस पास कहीं भी बैठ जाऊं

तुम ताक  में होते हो

मुझे एक झपट्टे में मिटा देने को

आस पास हाथ मारते रहते हो

लेकिन कुछ हाथ नहीं आता

क्यों सही है न ?

 

सुना था

तुम अपने बड़े बड़े शत्रुओं से लड़ने को

हथियार बनाते हो

तोप  तलवार तमंचे

दूर से ही उन्हें ख़त्म करने के लिए

लेकिन नहीं चलते तुम्हारे हथियार मुझ पर भी !

मेरा नन्हा होना ही काम आता है !

 

आजकल बना लिया एक नया शस्त्र तुमने

बैडमिंटन नुमा

पहले तो लगा - तुम खेल रहे हो

फिर समझ में आया

ये तो तुम्हारा नया खुनी खेल है

अपने छोटे दुश्मनों को

बिजली से जला जला कर मारने के लिए

जब कोई कीट उन तारों से टकरा कर चिपक जाता है

और तड़प तड़प कर मरता है

तुम्हे उस फड़फड़ाने में

उस दर्दनाक स्वर में आनंद आता है !

 

लेकिन एक बार फिर

तुम मुझसे हारते हो

तुम सिर्फ मच्छर मारते हो

क्योंकि वो तुम्हारे पास आते हैं

स्वार्थवश

तुम्हारा खून पीने को

वो उड़ नहीं पाते

क्योंकि तुम्हारा स्वार्थी खून उनमे होता है

मेरा क्या बिगाड़ोगे

मैं तो बस तुमसे खेलती हूँ

तुम्हे स्पर्श करती हूँ

तुम्हारा हथियार बहुत धीमा है

मेरी गति बहुत तेज !

 

मुझसे बचने का एक ही साधन है

तुम अपने तन को सम्भालो

कोई बचाव वाला रसायन लगा लो

मैं नहीं आऊँगी तुम्हारे पास

क्योंकि मुझे नफरत है

तुम्हारे नकली आवरण से !

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