ये कैसी बरसात
आज से १७ साल पहले आज ही का दिन था. दोपहर मे पत्नी का फोन आया कि बारिश बहुत ज्यादा है, आप घर आ जाओ! मैंने थोड़ी देर बाद दफ्तर बंद कर दिया, और सब की छुट्टी कर दी. आधी घंटे के अंदर मेरे सामने की सड़क पूरी नदी बन गयी. हर व्यक्ति अपनी गाड़ी को सड़क के बीच मे ही छोड़ कर कहीं ना कहीं शरण ढूँढने लगा. मैंने शरण ली एक दूर के रिश्तेदार के घर. घर पर बस महिलाएं थी, पुरुष कहीं और फंसे थे. पूरी रात काटी एक अनजान घर मे. उनका दिया भोजन खाया. लगभग पूरी मुंबई की यही स्थिति थी. जो मेरी तरह किस्मत वाले थे उन्हे किसी ना किसी घर मे शरण मिली;बाकी लाखों लोग स्टेशन पर, गाड़ियों मे कहीं भी रात गुजार रहे थे. बहुत भयावह थी वो रात. प्रलय की परिकल्पना मिल गयी थी. ऐसे मे लिखी मैंने ये कविता, जो आज अपने मित्रों से साझा कर रहा हूँ. आप भी अपने अनुभव साझा करें.
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