Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

बुधवार, 4 अगस्त 2010

बिखरा और छितराया मन

मिलने को व्याकुल था कितना ,
फिर भी क्यों कतराया मन
मैं ही झुकता जाऊं क्योंकर ,
यह कह कर इतराया मन .

चाहत बिखरी कण कण में थी  ,
इच्छाएं पल पल में थी
सब कुछ पाने की ख्वाहिश में
बिखरा और छितराया मन

फूलों की चाहत में कितनी
खुशियाँ दिल में बसती थी
अब फूलों के बीच खड़ा मैं 
जाने क्यों मुरझाया मन 

यह कर लूं मैं , वह कर लूं मैं 
सपने हरदम बुनता था 
करने का कुछ वक़्त हुआ तो 
क्यों सोया सुस्ताया मन 

जब तक थे अवसर मन घूमा- 
फिरता था आवारा सा 
छूट गयी जब डोर समय की 
अब है क्यों पछताया मन

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