Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

मुफ्त

इस ज़माने में भी कुछ सामान मुफ्त है
हंस के देखिये अभी मुस्कान मुफ्त है

जिंदगी भर लेटने सोने के दाम थे
मर गए तो मौज है शमशान मुफ्त है

पेड़ से टूटे हुए गुल है बड़े महंगे
मेज पर टूटा हुआ गुलदान मुफ्त है

सांस लेने को हवा हासिल नहीं घर में
छत उड़ाने के लिए तूफ़ान मुफ्त है

मंदिरों में आज कल प्रसाद नहीं है
चाहिए जितने भी तो वरदान मुफ्त है

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