हम - हम सब
रोज पीते हैं - न जाने कितना विष
विष शब्दों का - विष अपशब्दों का
विष तानो का - विष तनावों का
विष गैरों का -विष अपनों का
जिन्दा रहते हैं हम फिर भी
इतना विष पीकर भी
पता हैं क्यों ?
क्योंकि
ढेर सारे विष के सामने
हमें मिलती है अमृत की कुछ बूंदे
कहीं न कहीं
कभी न कभी
किसी न किसी से .
यह अमृत हमें अमर बना देता
अगर हमारे अन्दर
इतना विष न भरा होता
फिर भी अमृत अमृत है
कुछ बूंदे भी काफी है
असंख्य विषों को प्रभावहीन करने को;
लेकिन जब विष भर जाये हलक तक
अमृत की बूंदे हो जाये अपर्याप्त
तब हमारे अन्दर का अंतर
उगल डालता है यह घोर विष
किसी और पर
और इस तरह हम सब
बांटते रहते हैं ,अपने जीवन के विष को
जब हम थूक नहीं पाते अपने विषों को
उन पर
जिन्होंने हमें यह दिया था
तो हम उसे थूकते हैं उन पर
जो हमें अमृत देते हैं
इसलिए नहीं कि
हम उन्हें दुःख देना चाहते हैं
बल्कि इसलिए कि
वही लोग - सिर्फ वही लोग
हमारे उगले हुए विष को
अंजुरियों से पी लेंगे
और फिर भी लौटायेंगे
हमें अपना अमृत
हमारे विष से
उनका हलक सूख जायेगा
गर्दन नीली पड़ जाएगी
लेकिन वे कहलायेंगे
नीलकंठ
शिव कि तरह
और फिर भी बाँटेंगे
अमृत
आजीवन !!
आमरण !!!
बहुत बहुत बहुत सुन्दर रचना लिखी है भाई |कब से इसे खोज रही थी | आखें भर आई | बहुत ही सही बाते कही आपने | जीवन भर कितना जहर कितना विष हम पीते रहते हैं | जब कभी कहीं से दुख मिलता है , नफरत मिलती है | पीड़ा मिलती है | हम कैसे आखों के आसुओं को गिरने भी नहीं देते| उन्हें अन्दर ही अन्दर जज्ब कर लेते है | और वो विष बन जाते हैं | जब कोई दिल तोड़ देता है या अपनी नफरत हम पर उड़ेल देता है तो हम फिर से विष भर जाते है | लेकिन कभी भी पलटवार नहीं करते |
जवाब देंहटाएंऔर ये विष , हम उन पर उड़ेल देते है जो हमारे अपने हैं | क्यों करते हैं हम ऐसा ? लेकिन हम विषपायी जनम के है | कुछ बूंदे प्रेम की , अपनेपन की ,आत्मीयता की हमें फिर से अमृत मयी बना देती है |कैसे बहुत से विष पर कुछ बूंदे अमृत की भारी पड़ती है | हम नीलकंठ ही है | विष को गले से नीचे नहीं उतार सकते --जीना जो है जरूरी | सबके लिए | अधूरे से रिश्तों में जलते रहो अधूरी सी सांसों में पलते रहो मगर जीये जाने का दस्तूर है | बहुत सुन्दर , सहेजने योग्य रचना है ये | बहुत गहरी बहुत खूब | बधाई |