Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

बुधवार, 5 मई 2010

बुढ़ापा

जीवन एक वीरान हवेली सा
जिसमे यादों के उलझे से जाले
तन्हाई की हैं परतें उतर रही
पतझड़ के पेड़ों सी दीवालें

छत उलटी लटक रही सर पे कब से
इसने हर पल को है जाते देखा
इसने देखी रातों की परछाई
सूरज को खिड़की से आते देखा

इस जीवन के अन्दर कितनी हलचल
कितना असमंजस कितना कोलाहल
कितनी बातें दिखती , घटती रहती
मन के सागर में कितनी उथल पुथल

पर फिर भी अंतर में सन्नाटा है
सब कुछ होकर भी यह ख़ामोशी है
हो इन्तेजार जैसे कुछ होने का
दस्तक कब दे दे मौत पडोसी है

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