जीवन एक वीरान हवेली सा
जिसमे यादों के उलझे से जाले
तन्हाई की हैं परतें उतर रही
पतझड़ के पेड़ों सी दीवालें
छत उलटी लटक रही सर पे कब से
इसने हर पल को है जाते देखा
इसने देखी रातों की परछाई
सूरज को खिड़की से आते देखा
इस जीवन के अन्दर कितनी हलचल
कितना असमंजस कितना कोलाहल
कितनी बातें दिखती , घटती रहती
मन के सागर में कितनी उथल पुथल
पर फिर भी अंतर में सन्नाटा है
सब कुछ होकर भी यह ख़ामोशी है
हो इन्तेजार जैसे कुछ होने का
दस्तक कब दे दे मौत पडोसी है
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