Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

शनिवार, 29 मई 2010

अशांति

कितनी अशांति बिखरी है ,यूँ जग जीवन में
जैसे कोई धुआं फैले एक उपवन में

उपवन में हम खुशबू लेने को आये थे
कुछ अपना इस उपवन को देने आये थे
क्यूं फर्क आ गया लेने देने का मन में

हमने कुछ ताज़ा फूल यहाँ से तोड़े भी
उन फूलों के गुलदस्ते हमने जोड़े भी
फिर 'और अधिक' के कांटे बींध गए तन में

सूखे पत्तों को हमने आग दिखा डाली
फूलों की खुशबू  में दुर्गन्ध मिला डाली
ऐसे अशांति फैला डाली इस बगियन में

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें