Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

रविवार, 30 मई 2010

अनाम तुम!

चंद घंटों पहले
तुम कितने सुरक्षित थे
न सर्द हवा के झोंके
न भूख का तकाजा
न जीने की चिंता
 न मरने का डर
माँ के गर्भ में
नरम थे , गरम थे

शुरू हुआ तुम्हारा संघर्ष
तब , जब आये तुम बाहर
इस बेरहम दुनिया की दहलीज पर
जहाँ तुम्हारे लिए खड़ी थी
एक अनाम जिंदगी
एक बदनाम मौत
वर्षों जीने का पाप
न मर पाने का श्राप

आज से तुम्हारी मित्र है
भुखमरी और लाचारी
दुर्बलता और बीमारी
बिलखता बचपन
अपराधी यौवन
रिसता बुढ़ापा
प्रश्नवाचक जीवन

तुम्हारा दोष क्या ?
तुम्हारा 'तुम' होना
होकर भी गुम होना
बिन नाम के अनाम तुम
आये हो पर गुमनाम तुम
एक बिन पते के लिफाफे से
डाक के डब्बे  सी दुनिया में
जिस पर मुहर नहीं लगी
पोस्ट मास्टर समाज की
बेमानी रिवाज की

अनाम तुम! गुमनाम तुम!!

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