भारत ने
ना जाने
क्यों ले ली
क्यों झेली
नयी बला
वजह बिला
ये आफत
ये सांसत
कोमनवेल्थ
बिगड़ा हेल्थ
शासन का
प्रशासन का
पहले जो
थे आगे
अब पीछे
हैं भागे
चढ़ गाडी
कलमाड़ी
धड़का दिल
एम. एस. गिल
नाक कटी
दिल्ली की
उडी हंसी
"शिल्ली" की
दुनिया में
थू थू है
दिल्ली में
बदबू है
कई करोड़
दिए मरोड़
खाया फंड
क्या दे दंड
खेलों का
क्या होगा
झमेलों का
क्या होगा
मनमोहन
सोच रहे
दाढ़ी को
नोच रहे
चिल्लाती
दुनिया है
पर खामोश
सोनिया है
उड़े सभी के
तोते है
अब सब राम-
भरोसे है
मैंने यहाँ खुला रख छोड़ा है , अपने मन का दरवाजा! जो कुछ मन में होता है , सब लिख डालता हूँ शब्दों में , जो बन जाती है कविता! मुझे जानना हो तो पढ़िए मेरी कवितायेँ !
Mahendra Arya
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
रविवार, 26 सितंबर 2010
कहते रहते लोग
लेना देना नहीं किसी का , फिर भी कहते लोग
औरों के जीवन के मसले , चुप ना रहते लोग
मेरा जीवन मेरा अपना क्या खाया क्या पहना
मैं खुश हूँ मैं जैसा भी हूँ , क्यों नाखुश हैं लोग
मैं बीमार पड़ा तो नुस्खे मेरे पास बहुत है
हर कोई अपना दे जाता , देने आते लोग
मेरे घर में कलह हुई तो मैंने उसे संभाला
फिर भी कलह बढ़ाने आते समझदार कुछ लोग
खूब कहा शायर ने प्यारे कुछ तो लोग कहेंगे
क्योंकि उनका काम है कहना , कहते रहते लोग
औरों के जीवन के मसले , चुप ना रहते लोग
मेरा जीवन मेरा अपना क्या खाया क्या पहना
मैं खुश हूँ मैं जैसा भी हूँ , क्यों नाखुश हैं लोग
मैं बीमार पड़ा तो नुस्खे मेरे पास बहुत है
हर कोई अपना दे जाता , देने आते लोग
मेरे घर में कलह हुई तो मैंने उसे संभाला
फिर भी कलह बढ़ाने आते समझदार कुछ लोग
खूब कहा शायर ने प्यारे कुछ तो लोग कहेंगे
क्योंकि उनका काम है कहना , कहते रहते लोग
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
मेरी सबसे उम्दा ग़जल
मेरी कविताओं की डायरी में
एक पन्ना खाली है
उस पन्ने पर लिखी है
मेरे जीवन की सबसे उम्दा ग़जल
जिसे तुम नहीं पढ़ पाओगे
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
रोशनाई से
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
हर्फों में
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
हिंदी या उर्दू में
वो लिखी गयी थी
दर्द की कलम से
वो लिखी गयी थी
आंसुओं की सियाही से
वो लिखी गयी थी
रात के अँधेरे से
लेकिन तुम्हे वो दिखाई नहीं देगी
क्योंकि उस ग़जल के हर्फ़
पढ़े नहीं
महसूस किये जाते हैं ;
मेरी सबसे उम्दा ग़जल
सिर्फ मेरे लिए है दोस्त
जिसे मैं अक्सर पढता हूँ
एक पन्ना खाली है
उस पन्ने पर लिखी है
मेरे जीवन की सबसे उम्दा ग़जल
जिसे तुम नहीं पढ़ पाओगे
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
रोशनाई से
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
हर्फों में
क्योंकि वो लिखी नहीं गयी
हिंदी या उर्दू में
वो लिखी गयी थी
दर्द की कलम से
वो लिखी गयी थी
आंसुओं की सियाही से
वो लिखी गयी थी
रात के अँधेरे से
लेकिन तुम्हे वो दिखाई नहीं देगी
क्योंकि उस ग़जल के हर्फ़
पढ़े नहीं
महसूस किये जाते हैं ;
मेरी सबसे उम्दा ग़जल
सिर्फ मेरे लिए है दोस्त
जिसे मैं अक्सर पढता हूँ
बुधवार, 22 सितंबर 2010
बोलते शब्दों की कविता
[ एक प्रयोगात्मक कविता है . टिपण्णी स्वरुप आप भी इसी तरह की चंद पंक्तियाँ जोड़ सकते हैं. मजा आएगा . कोशिश करें. ]
चिलचिलाती धूप
खिलखिलाता बचपन
पिलपिलाता आम
झिलमिलाता आँगन
भिनभिनाती मक्खी
सनसनाती हवा
पिनपिनाती बुढिया
गुनगुनाती फिजा
सुगबुगाती भीड़
दनदनाती गोली
कुलबुलाते कीड़े
फुसफुसाती बोली
चहचहाते पाखी
लहलहाती फसल
जगमगाते दिए
बड़बडाती अकल
तमतमाता चेहरा
चमचमाता घर
लड़खड़ाते कदम
फडफडाते पर
गड़गड़ाते बादल
कडकडाती बिजली
थरथराते होंठ
चुलबुलाती तितली
डगमगाता शराबी
चुहचुहाता तन
लपलपाती जीभ
सकपकाता मन
चिलचिलाती धूप
खिलखिलाता बचपन
पिलपिलाता आम
झिलमिलाता आँगन
भिनभिनाती मक्खी
सनसनाती हवा
पिनपिनाती बुढिया
गुनगुनाती फिजा
सुगबुगाती भीड़
दनदनाती गोली
कुलबुलाते कीड़े
फुसफुसाती बोली
चहचहाते पाखी
लहलहाती फसल
जगमगाते दिए
बड़बडाती अकल
तमतमाता चेहरा
चमचमाता घर
लड़खड़ाते कदम
फडफडाते पर
गड़गड़ाते बादल
कडकडाती बिजली
थरथराते होंठ
चुलबुलाती तितली
डगमगाता शराबी
चुहचुहाता तन
लपलपाती जीभ
सकपकाता मन
रविवार, 19 सितंबर 2010
लफंग बन गए हैं दबंग आजकल
सीमा पे अमन देश में है जंग आजकल
घुसपैठिये बना रहे सुरंग आजकल
ऊंचाइयों पे उड़ने का हम ख्वाब देखते
अपने ही अपनी काटते पतंग आजकल
बाहर के दुश्मनों से हम चाहे निपट भी लें
अपने ही गिरेबान में भुजंग आजकल
जितने गदर्भ देश में , ओहदों पे मस्त है
धोबी के घाट पर खड़े तुरंग आजकल
संस्कार ख़त्म हो चले , अधिकार बच गए
अच्छे नहीं समाज के रंग-ढंग आजकल
छिछोरे - युवा पीढ़ी के आदर्श बन गए
लफंग बन गए हैं दबंग आजकल
शब्दार्थ
[ गदर्भ = गधा / तुरंग = घोडा ]
घुसपैठिये बना रहे सुरंग आजकल
ऊंचाइयों पे उड़ने का हम ख्वाब देखते
अपने ही अपनी काटते पतंग आजकल
बाहर के दुश्मनों से हम चाहे निपट भी लें
अपने ही गिरेबान में भुजंग आजकल
जितने गदर्भ देश में , ओहदों पे मस्त है
धोबी के घाट पर खड़े तुरंग आजकल
संस्कार ख़त्म हो चले , अधिकार बच गए
अच्छे नहीं समाज के रंग-ढंग आजकल
छिछोरे - युवा पीढ़ी के आदर्श बन गए
लफंग बन गए हैं दबंग आजकल
शब्दार्थ
[ गदर्भ = गधा / तुरंग = घोडा ]
बुधवार, 15 सितंबर 2010
वैधव्य
कोई चला गया है
सब कुछ बदल गया है ,
अनहोनी हो रही है
वो छड़ी रो रही है ,
आराम कुर्सी थक गयी
आराम करते करते ,
दरवाजा थक गया
इन्तेजार करते करते ,
चश्मा धुंधल गया
आँखों से लड़ते लड़ते ,
पन्ना पलट गया
उन अँगुलियों को पढ़ते ,
गर्मी से परेशान है
ठन्डे पानी का घड़ा ,
थक गया है खम्भा
वर्षों से यूँ खड़ा ,
फिसल रही है काई
अपनी ही फिसलन में ,
खुजला रही दीवारें
खुद अपनी उतरन में ,
चौंधिया गया दिया
अपनी ही लपट से,
सहमा हुआ अँधेरा
खुद अपने कपट से ,
दबा पड़ा दूध
मोटी मलाई से ,
निशान दिख रहे
सूनी कलाई पे ,
क्या आज हो गया है
क्या राज हो गया है ,
श्रृंगार खो रहा है
वैधव्य रो रहा है .
सब कुछ बदल गया है ,
अनहोनी हो रही है
वो छड़ी रो रही है ,
आराम कुर्सी थक गयी
आराम करते करते ,
दरवाजा थक गया
इन्तेजार करते करते ,
चश्मा धुंधल गया
आँखों से लड़ते लड़ते ,
पन्ना पलट गया
उन अँगुलियों को पढ़ते ,
गर्मी से परेशान है
ठन्डे पानी का घड़ा ,
थक गया है खम्भा
वर्षों से यूँ खड़ा ,
फिसल रही है काई
अपनी ही फिसलन में ,
खुजला रही दीवारें
खुद अपनी उतरन में ,
चौंधिया गया दिया
अपनी ही लपट से,
सहमा हुआ अँधेरा
खुद अपने कपट से ,
दबा पड़ा दूध
मोटी मलाई से ,
निशान दिख रहे
सूनी कलाई पे ,
क्या आज हो गया है
क्या राज हो गया है ,
श्रृंगार खो रहा है
वैधव्य रो रहा है .
शनिवार, 11 सितंबर 2010
अंतर की ग्रंथियों को खोलो कभी कभी
[ जैन समाज में एक बहुत अच्छी प्रथा है . वर्ष में एक दिन सभी एक दुसरे स मिल कर हाथ जोड़ कर कहते हैं - " मिच्छामी दुक्कड़म " . इस का अर्थ होता है की इस पूरे वर्ष में मेरे किसी भी कार्य या वचन से जाने या अनजाने रूप से आपका दिल दुख हो तो मुझे क्षमा करें . इसी भावना पर आधारित है मेरी ये नयी ग़जल .]
मन को उलट पलट के टटोलो कभी कभी
अंतर की ग्रंथियों को खोलो कभी कभी
कुछ घाव छोटे छोटे नासूर बन न जाये
मरहम लगाके प्यार की धो लो कभी कभी
बातों पे खाक डालो जो चुभ गयी थी दिल में
कुछ जायका बदल के बोलो कभी कभी
कुछ अपने गिरेबां में भी झांक कर देखो
और अपनी गलतियों को तोलो कभी कभी
मन भर ही जाए जो गर अंतर की वेदना से
कहीं बैठ कर अकेले रो लो कभी कभी
मन को उलट पलट के टटोलो कभी कभी
अंतर की ग्रंथियों को खोलो कभी कभी
कुछ घाव छोटे छोटे नासूर बन न जाये
मरहम लगाके प्यार की धो लो कभी कभी
बातों पे खाक डालो जो चुभ गयी थी दिल में
कुछ जायका बदल के बोलो कभी कभी
कुछ अपने गिरेबां में भी झांक कर देखो
और अपनी गलतियों को तोलो कभी कभी
मन भर ही जाए जो गर अंतर की वेदना से
कहीं बैठ कर अकेले रो लो कभी कभी
शनिवार, 4 सितंबर 2010
मास्टरजी
[ अठारहवीं सदी के अंग्रेजी भाषा के एक प्रसिद्ध कवि ओलिवर गोल्डस्मिथ की एक मशहूर कविता थी - विलेज स्कूल मास्टर . उसी कविता को थोड़े भारतीय परिपेक्ष्य में प्रस्तुत कर रह हूँ , हिंदी में . कविता के नीचे प्रस्तुत है मूल अंग्रेजी की कविता भी . पढ़ कर प्रतिक्रिया जरूर देवें . ]
मास्टरजी
एक कच्चे मकान में बसा
गाँव का वो स्कूल
जिसके अहाते में लगे थे
रंग बिरंगे फूल
पढ़ते थे गाँव के बच्चे
यहाँ आकर हर रोज
खेल कूद मस्ती
और खूब मौज
पढ़ाते थे उनको
एक बूढ़े से मास्टरजी
भूगोल इतिहास हिंदी
गणित और अंग्रेजी
कभी थे नरम
कभी थे कठोर
डरते थे उनसे
पढने के चोर
जिस दिन होता उनका
मूड कुछ ख़राब
लड़के फुसफुसाते
गुस्से में है जनाब
उनको हंसाते
किस्से सुनाते
नकली हंसी हँसते
जब मास्टरजी सुनाते
गाँव सारा मानता था
उनको धुरंधर
उन सा नहीं था कोई
गाँव के अन्दर
क्या लिखना क्या पढना
जोड़ना घटाना
खेतों के बीघे
नाप कर बताना
बातों में उनका
नहीं कोई सानी
तर्क करने में
थे वो लासानी
करते थे सारे
आश्चार्य इतना
छोटी सी खोपड़ी में
ज्ञान भरा कितना
जब तक रहे, किया
एकछत्र शासन
हो गए रिटायर
ख़त्म अनुशासन
The Village Schoolmaster
Beside yon straggling fence that skirts the वे
With blossom'd furze unprofitably gay,
There, in his noisy mansion, skill'd to rule,
The village master taught his little school;
A man severe he was, and stern to view,
I knew him well, and every truant knew;
Well had the boding tremblers learn'd to trace
The days disasters in his morning face;
Full well they laugh'd with counterfeited glee,
At all his jokes, for many a joke had he:
Full well the busy whisper, circling round,
Convey'd the dismal tidings when he frown'd:
Yet he was kind; or if severe in aught,
The love he bore to learning was in fault.
The village all declar'd how much he knew;
'Twas certain he could write, and cipher too:
Lands he could measure, terms and tides presage,
And e'en the story ran that he could gauge.
In arguing too, the parson own'd his skill,
For e'en though vanquish'd he could argue still;
While words of learned length and thund'ring sound
Amazed the gazing rustics rang'd around;
And still they gaz'd and still the wonder grew,
That one small head could carry all he knew.
But past is all his fame. The very spot
Where many a time he triumph'd is forgot.
मास्टरजी
एक कच्चे मकान में बसा
गाँव का वो स्कूल
जिसके अहाते में लगे थे
रंग बिरंगे फूल
पढ़ते थे गाँव के बच्चे
यहाँ आकर हर रोज
खेल कूद मस्ती
और खूब मौज
पढ़ाते थे उनको
एक बूढ़े से मास्टरजी
भूगोल इतिहास हिंदी
गणित और अंग्रेजी
कभी थे नरम
कभी थे कठोर
डरते थे उनसे
पढने के चोर
जिस दिन होता उनका
मूड कुछ ख़राब
लड़के फुसफुसाते
गुस्से में है जनाब
उनको हंसाते
किस्से सुनाते
नकली हंसी हँसते
जब मास्टरजी सुनाते
गाँव सारा मानता था
उनको धुरंधर
उन सा नहीं था कोई
गाँव के अन्दर
क्या लिखना क्या पढना
जोड़ना घटाना
खेतों के बीघे
नाप कर बताना
बातों में उनका
नहीं कोई सानी
तर्क करने में
थे वो लासानी
करते थे सारे
आश्चार्य इतना
छोटी सी खोपड़ी में
ज्ञान भरा कितना
जब तक रहे, किया
एकछत्र शासन
हो गए रिटायर
ख़त्म अनुशासन
The Village Schoolmaster
Beside yon straggling fence that skirts the वे
With blossom'd furze unprofitably gay,
There, in his noisy mansion, skill'd to rule,
The village master taught his little school;
A man severe he was, and stern to view,
I knew him well, and every truant knew;
Well had the boding tremblers learn'd to trace
The days disasters in his morning face;
Full well they laugh'd with counterfeited glee,
At all his jokes, for many a joke had he:
Full well the busy whisper, circling round,
Convey'd the dismal tidings when he frown'd:
Yet he was kind; or if severe in aught,
The love he bore to learning was in fault.
The village all declar'd how much he knew;
'Twas certain he could write, and cipher too:
Lands he could measure, terms and tides presage,
And e'en the story ran that he could gauge.
In arguing too, the parson own'd his skill,
For e'en though vanquish'd he could argue still;
While words of learned length and thund'ring sound
Amazed the gazing rustics rang'd around;
And still they gaz'd and still the wonder grew,
That one small head could carry all he knew.
But past is all his fame. The very spot
Where many a time he triumph'd is forgot.
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
परिभाषाएं - तीन नन्ही कवितायेँ
बोर
मैंने यूँही पूछ लिया
क्या हाल चाल है
और वो
विस्तार से बताने लगा
कितना बोर है वो
इंटेलिजेंट
टी टी साहब
एक बर्थ मिलेगी ?
नहीं, कोई खाली नहीं है
सर , जाना बहुत जरूरी है
गांधीजी की कसम
उसने मुझे देखा
बोला- ठीक है चढ़ जाइये,
देखते हैं
इंटेलिजेंट था
मैंने यूँही पूछ लिया
क्या हाल चाल है
और वो
विस्तार से बताने लगा
कितना बोर है वो
स्मार्ट
एक खाली टैक्सी वाले से
एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछा मैंने
टैक्सी खाली है ?
उसने मेरी बात का फायदा उठा लिया
बोला - नहीं है
और स्पीड बढ़ा कर भाग निकला
स्मार्ट था
इंटेलिजेंट
टी टी साहब
एक बर्थ मिलेगी ?
नहीं, कोई खाली नहीं है
सर , जाना बहुत जरूरी है
गांधीजी की कसम
उसने मुझे देखा
बोला- ठीक है चढ़ जाइये,
देखते हैं
इंटेलिजेंट था
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