Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

सोमवार, 31 मई 2010

नीलकंठ

हम - हम सब
रोज पीते हैं - न जाने कितना विष
विष शब्दों का - विष अपशब्दों का
विष तानो का - विष तनावों का
विष गैरों का -विष अपनों का
जिन्दा रहते हैं हम फिर भी
इतना विष पीकर भी
पता हैं क्यों ?

क्योंकि
ढेर सारे विष के सामने
हमें मिलती है अमृत की कुछ बूंदे
कहीं न कहीं
कभी न कभी
किसी न किसी से .
यह अमृत हमें अमर बना देता
अगर हमारे अन्दर
इतना विष न भरा होता

फिर भी अमृत अमृत है
कुछ बूंदे भी काफी है
असंख्य विषों को प्रभावहीन करने को;
लेकिन जब विष भर जाये हलक तक
अमृत की बूंदे हो जाये अपर्याप्त
तब हमारे अन्दर का अंतर
उगल डालता है यह घोर विष
किसी और पर
और इस तरह हम सब
बांटते  रहते हैं ,अपने जीवन के विष को

जब हम थूक नहीं पाते अपने विषों को
उन पर
जिन्होंने हमें यह दिया था
तो हम उसे थूकते हैं उन पर
जो हमें अमृत देते हैं
इसलिए नहीं कि
हम उन्हें दुःख देना चाहते हैं
बल्कि इसलिए कि
वही लोग - सिर्फ वही लोग
हमारे उगले हुए विष को
अंजुरियों से पी लेंगे
और फिर भी लौटायेंगे
हमें अपना अमृत

हमारे विष से
उनका हलक सूख जायेगा 
गर्दन नीली पड़ जाएगी
लेकिन वे कहलायेंगे
नीलकंठ
शिव कि तरह
और फिर भी बाँटेंगे
अमृत
आजीवन !!
आमरण !!!

रविवार, 30 मई 2010

अनाम तुम!

चंद घंटों पहले
तुम कितने सुरक्षित थे
न सर्द हवा के झोंके
न भूख का तकाजा
न जीने की चिंता
 न मरने का डर
माँ के गर्भ में
नरम थे , गरम थे

शुरू हुआ तुम्हारा संघर्ष
तब , जब आये तुम बाहर
इस बेरहम दुनिया की दहलीज पर
जहाँ तुम्हारे लिए खड़ी थी
एक अनाम जिंदगी
एक बदनाम मौत
वर्षों जीने का पाप
न मर पाने का श्राप

आज से तुम्हारी मित्र है
भुखमरी और लाचारी
दुर्बलता और बीमारी
बिलखता बचपन
अपराधी यौवन
रिसता बुढ़ापा
प्रश्नवाचक जीवन

तुम्हारा दोष क्या ?
तुम्हारा 'तुम' होना
होकर भी गुम होना
बिन नाम के अनाम तुम
आये हो पर गुमनाम तुम
एक बिन पते के लिफाफे से
डाक के डब्बे  सी दुनिया में
जिस पर मुहर नहीं लगी
पोस्ट मास्टर समाज की
बेमानी रिवाज की

अनाम तुम! गुमनाम तुम!!

शनिवार, 29 मई 2010

अशांति

कितनी अशांति बिखरी है ,यूँ जग जीवन में
जैसे कोई धुआं फैले एक उपवन में

उपवन में हम खुशबू लेने को आये थे
कुछ अपना इस उपवन को देने आये थे
क्यूं फर्क आ गया लेने देने का मन में

हमने कुछ ताज़ा फूल यहाँ से तोड़े भी
उन फूलों के गुलदस्ते हमने जोड़े भी
फिर 'और अधिक' के कांटे बींध गए तन में

सूखे पत्तों को हमने आग दिखा डाली
फूलों की खुशबू  में दुर्गन्ध मिला डाली
ऐसे अशांति फैला डाली इस बगियन में

बुधवार, 26 मई 2010

जिन्दगी छोटी सी

कर चुके झगडा बहुत, मत रोइए
जिन्दगी छोटी सी है , मत खोइए

बात करने को समय मिलता नहीं
मौन रह कर वक़्त को मत खोइए

हो गया बस ,कह लिया कुछ सह लिया
पोंछ कर आंसू , ये चेहरा धोइए

फेर कर मुंह कर चुके अभिनय बहुत
अब जरा कंधे पे सर रख सोइए

शनिवार, 22 मई 2010

मन

मिलने को व्याकुल था कितना , फिर भी क्यों कतराया मन
मैं ही झुकता जाऊं क्योंकर , यह कह कर इतराया मन

चाहत बिखरी कण कण में थी , इच्छाएं पल पल में थी
सब कुछ पाने की ख्वाहिश में , बिखरा और छितराया मन

फूलों की चाहत में कितनी , खुशियाँ दिल में बसती थी
अब फूलों के बीच खड़ा मैं, जाने क्यों मुरझाया मन

यह कर लूं मैं , वह कर लूं मैं , सपने हर दम बुनता था ,
करने का जब वक़्त हुआ तो , क्यों सोया सुस्ताया मन

जब तक थे अवसर , मन घूमा फिरता था आवारा सा
छूट गयी जब डोर समय की , अब है क्यों पछताया मन

बुधवार, 19 मई 2010

माँ

हुई लड़ाई मित्रों से और लड़ कर लौटा घर मैं
मन में गुस्सा और हताशा लेकर लौटा घर मैं
आंसू अटके थे पलकों पर मन पर पत्थर था
अच्छा कुछ भी नहीं लग रहा था जब लौटा घर मैं

माँ ने देखा हाल मेरा और सब कुछ समझ लिया
सर पर फेरा हाथ और सीने से लगा लिया
अब न रुक सके आंसू मेरे झर झर बह निकले
कस कर माँ को पकड़ा मुह आँचल में छुपा लिया

कैसे समझ लिया करती हर बात मेरी बचपन में
मैं कुछ कह भी न पाता जब - व्यथा मेरी जो मन में
माँ , मैं तेरा ही हिस्सा तू हरदम यह कहती थी
चोट मुझे लगती होता था दर्द तुम्हारे तन में

माँ ही देवी , माँ ही भक्ति , माँ पूजा ,माँ इश्वर
माँ ही दीपक, माँ ही आरती ,माँ तीरथ, माँ मन्दिर
माँ की ममता से ज्यादा शीतल न मिलेगी गंगा
माँ के वचन रिचाओं जैसे छपे ग्रन्थ के अक्षर

सोमवार, 17 मई 2010

कुछ पता नहीं

कल जीवन में क्या होना है कुछ पता नहीं
है आज रात सोना और कल फिर उठना है
उठना भी है या नहीं - हमें कुछ पता नहीं

कितनी आपाधापी में चलता जीवन है
जीने की खातिर मरता रहता ये तन है
जिस रोटी को पाने को हम लड़ते रहते
थाली में है, पर मुख में हो, कुछ पता नहीं

रोटी की बात नहीं, चिंता है बरसों की
प्राणों को खबर नहीं अगले कल परसों की
न होने वाली बातों से डरते रहते
जो होना ही है, उस डर का कुछ पता नहीं

पंछी को कस कर पकड़ा तो मर जाएगा
जब चाहा पिंजरे से उड़ के घर जायेगा
पंछी को उड़ने दो पंखों को मत छेड़ो
यह कितनी दूर चला जाए कुछ पता नहीं

शनिवार, 15 मई 2010

एक पल

एक पल यूँ जी लिया ,बस जिंदगी को जी लिया
एक मधुकण पी लिया जीवन का अमृत पी लिया

जिंदगी की चाहतों का अंत कुछ होता नहीं
स्वप्न अपना जी लिया तो चाहतों को जी लिया

सौ बरस की जिंदगी को क्या करूँ जी कर भला
एक दिन में जैसे हमने एक जनम को जी लिया

प्यास बुझ सकती नहीं सावन की इक बरसात से
अंजुरी पर होठ रख कर सारा सावन पी लिया

बुधवार, 12 मई 2010

जिंदगी और मौत

जिंदगी का क्या भरोसा कब तलक चल पायेगी
मौत का पक्का है वादा एक दिन वो आएगी

सांस के तारों के सुर जिस दिन कहीं खो जायेंगे
गोद में रख सर , सिरहाने मौत गुनगुनायेगी

रात भर जो जल चुका उस दीप सी वीरान आँखें
जिंदगी के पार कोई लौ सी टिमटिमाएगी

शब्द अंतिम कह चुके होठों पे इक मुस्कान होगी
इक वही मुस्कान सब कुछ, अनकही कह जाएगी

स्पर्श की सीमा में सीमित , प्रेम जब बंधन न होगा
आत्मा ब्रह्माण्ड में घुल , प्रेममय हो जाएगी

बुधवार, 5 मई 2010

बुढ़ापा

जीवन एक वीरान हवेली सा
जिसमे यादों के उलझे से जाले
तन्हाई की हैं परतें उतर रही
पतझड़ के पेड़ों सी दीवालें

छत उलटी लटक रही सर पे कब से
इसने हर पल को है जाते देखा
इसने देखी रातों की परछाई
सूरज को खिड़की से आते देखा

इस जीवन के अन्दर कितनी हलचल
कितना असमंजस कितना कोलाहल
कितनी बातें दिखती , घटती रहती
मन के सागर में कितनी उथल पुथल

पर फिर भी अंतर में सन्नाटा है
सब कुछ होकर भी यह ख़ामोशी है
हो इन्तेजार जैसे कुछ होने का
दस्तक कब दे दे मौत पडोसी है

मंगलवार, 4 मई 2010

We The Civilised Society

Kasab is in news, once again. 26/11 has become history. Kasab is the only source of reminder of those dreadful three days. Media makes full use of Kasab's trial by recreating the scenes of attack by terrorists. Terror terrorises, but terror sells too. Court is busy telling Kasab, how many crimes he did. Today the court will pronounce the punishment! May be a death sentence.

Death sentence- how many times? Can the court senetence a man to death 52 times, or 100 times? No, as the criminal will not live to face the second one once he is hanged. Than why so much drama? If we need to complete the formalities of trial we may go on doing it forever. But why delay the execution of a dangerous terrorist like Kasab in the name of justice.

Our justice is funny. We have people arrested and locked in the lock up, just on the basis of petty complaints or suspicions. People are inside for years altogether as their trial never starts.And there is nobody to bail them out. A grave injustice to such innocent poor people.On the other hand people like Kasab are enjoying the right to live inspite of killing people at large in broad daylight.

This is not all. Even for the noose, Mr. Kasab will be in a long waiting list. There are dozens of people in waiting to be hanged. And he is in great company of other dreaded terrorists, who attacked Indian parliament , now almost a decade ago. And the same parliament can not find any ways and means to expedite such sentence fast.

It is all so absurd. I will never understand.However, waiting what the Judge Tahilyani has got to give to Kasab today!!