सूरज थके हुए चेहरे सा डूबने लगा 
दिन भर की रुपैयों सी चमक ख़त्म हुई 
मेहनत के बाद का सा सुर्ख रंग हो गया 
क्षितिज तक पहुँचने में पाँव हुए बोझिल 
जैसे कह रहा हो - कोई अब घर पहुंचा दे !
 
रात प्रेमिका के केश सी फ़ैल गयी 
चाँद माथे की बिंदी सा चमक उठा 
तारे आँचल में टंके जगमगाने लगे
हवा नगमा बन गुनगुनाने लगी 
रात रानी ने इत्र की शीशी खोल दी 
 
सागर व्यस्त है किसी बंधुआ  मजदूर सा
दिन हो या रात काम करता है 
माथे का पसीना पोंछ कर लहरों को 
फेंक देता है रेतीले किनारों पर 
अपने नमक को खा कर ही खुश है 
 
भोर दरवाजे पर खड़ी है, खामोश सी 
सोचती है दस्तक दे या नहीं 
शोर से रात जाग जायेगी 
पर सूरज कहाँ रुकने वाला है 
हाथ पकड़ कर बुला लिया भोर को
 
 
सूरज का विम्ब लेकर रची गई अच्छी कविता...
जवाब देंहटाएं..........प्रशंसनीय रचना - बधाई
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