Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

रविवार, 5 अगस्त 2012

गिलहरी


सुबह के चाय के प्याले के साथ
रोज का अख़बार पढ़ते हुए
मैं कनखियों से देखता था
खिड़की के बाहर
और मुझे दिखती थी वो गिलहरी
जो नीम के पेड़ पर दौड़ती रहती थी
निरंतर 
कभी नीचे से ऊपर कभी ऊपर से नीचे
कभी ठिठक कर खड़ी हो जाती 
अपनी नरम रोयेंदार
शानदार दुम को सीधा खड़ा कर के
मैं उसे देख कर
अनदेखा करता रहता था
शायद ये सोच कर
की उसे पता न चले
कि कोई उसे देख रहा है
वो नन्ही सी गिलहरी भी
शायद जानती थी
कि मैं उसे देखता हूँ
लेकिन न देखने का अभिनय करता हूँ
इसीलिए
वो बीच बीच में
मेरी खिड़की की तरफ देखती
ये देखने को -
क्या मैं देख रहा हूँ
और ये लुका छिपी चलती हर रोज
कल तक !
आज जब मैं बैठा
अपने चाय के प्याले के साथ
अख़बार खोल के
मुझे नहीं दिखी  वो मेरी दोस्त
नन्ही गिलहरी
मैंने सोचा शायद आज वो मुझसे
खेल रही है
लुका छिपी
जब बहुत देर तक नहीं दिखी
मैंने खिड़की के पास जाकर देखा
पेड़ पर कहीं नहीं दिखी
और फिर नजर आई
जमीन पर पड़ी उसकी निर्जीव देह
लगता था
किसी बाज ने झपट्टा मार के
उसे जख्मी कर दिया
पंजों से तो छूट गयी
लेकिन मौत से नहीं
मुझे लगा
उस गिलहरी के साथ
कहीं न कहीं मैं भी मर गया
थोडा बहुत अपने अन्दर 

2 टिप्‍पणियां:

  1. संवेदनशील रचना ... ये सिर्फ गिलहरी की मौत नहीं ... मन की कोमल भावनाओं की मौत है ...

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