शुभ हो अगला साल !
ना आवे भूकंप सुनामी
ना आवे भूचाल , शुभ हो अगला साल !
ना कोई आतंकी घुस आवे
ना कोई दुश्मन घात लगावे
अमन चैन से रहे देश यह
जीवन हो खुशहाल, शुभ हो अगला साल !
भ्रष्टाचार मिटे इस भू से
बचे रहे सब इस थू थू से
नेतागण आदर्श बने सब
देवें एक मिशाल , शुभ हो अगला साल !
रहे प्रगति पर देश हमारा
किसी से हो ना द्वेष हमारा
दुनिया चाहे मैत्री हम से
ऐसा करें कमाल , शुभ हो अगला साल !
बच्चा बच्चा सभी सुखी हो
कोई भारतीय नहीं दुखी हो
लक्ष्मी जी की कृपा रहे अब
कोई ना हो कंगाल , शुभ हो अगला साल !
मन में हो संतोष सभी के
जीवन में हो जोश सभी के
आपस में सौहार्द्र रहे और
ख़त्म सभी जंजाल, , शुभ हो अगला साल !
मैंने यहाँ खुला रख छोड़ा है , अपने मन का दरवाजा! जो कुछ मन में होता है , सब लिख डालता हूँ शब्दों में , जो बन जाती है कविता! मुझे जानना हो तो पढ़िए मेरी कवितायेँ !
Mahendra Arya
गुरुवार, 30 दिसंबर 2010
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
सुबह का अखबार
सोचता हूँ
अखबार पढना बंद कर दूं
क्या पढूं
एक विदेशी महिला का बलात्कार
पांच वर्षीया बालिका से कुकर्म
पिता द्वारा बेटी गर्भवती
पुलिस थाने में युवती से सामूहिक बलात्कार
तांत्रिक द्वारा माँ और बेटी के साथ लगातार कुकर्म
क्या इतनी गिर गयी है
समाज की सोच
या आने बाकी है
गिरावट के और भी आयाम
आम आदमी इतना जानवर हो गया है .........
अपनी बात वापस लेता हूँ
जानवर से क्षमा मांगते हुए
जानवर अपनी पृकृति से बाहर कुछ नहीं करता
प्रकृति जो ईश्वर प्रदत है
लेकिन मेरे अखबार न पढने से क्या होगा
समाचार तो नहीं बदल जायेंगे
समाचार बदलेंगे
सम आचार बदलने से
जब तक इस देश में
सीटियाँ बजती रहेंगी
किसी मुन्नी के बदनाम होने पर
तब तक अखबार ऐसे ही भरा रहेगा
मुनियों के बलात्कार की खबरों से
अखबार पढना बंद कर दूं
क्या पढूं
एक विदेशी महिला का बलात्कार
पांच वर्षीया बालिका से कुकर्म
पिता द्वारा बेटी गर्भवती
पुलिस थाने में युवती से सामूहिक बलात्कार
तांत्रिक द्वारा माँ और बेटी के साथ लगातार कुकर्म
क्या इतनी गिर गयी है
समाज की सोच
या आने बाकी है
गिरावट के और भी आयाम
आम आदमी इतना जानवर हो गया है .........
अपनी बात वापस लेता हूँ
जानवर से क्षमा मांगते हुए
जानवर अपनी पृकृति से बाहर कुछ नहीं करता
प्रकृति जो ईश्वर प्रदत है
लेकिन मेरे अखबार न पढने से क्या होगा
समाचार तो नहीं बदल जायेंगे
समाचार बदलेंगे
सम आचार बदलने से
जब तक इस देश में
सीटियाँ बजती रहेंगी
किसी मुन्नी के बदनाम होने पर
तब तक अखबार ऐसे ही भरा रहेगा
मुनियों के बलात्कार की खबरों से
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
अलसाई सी धूप
आँगन में उतरी, पसरी है - अलसाई सी धूप
जाड़े की सुबह में थोड़ी ठिठुराई सी धूप
गर्मी में आती मुडेर पर गुस्से में हो लाल
दोपहरी में ज्वाला बनती , गुस्साई सी धूप
वर्षा में बादल बच्चों सी अठखेली करते हैं
लुका छिपी करती उनसे ,मुस्काई सी धूप
वर्षा की बूंदों से मिल कर , श्रृंगारित होती है
इन्द्रधनुष की वेणी पहने , शरमाई सी धूप
पतझड़ के पेड़ों से कहती - ये क्या हाल बनाया
सूखे पत्तों को झड्काती , पुरवाई सी धूप
दिन का मौसम कैसा भी हो, शाम मगर वैसी ही
जैसे सूरज ढलता जाता , कुम्हलाई सी धूप
जाड़े की सुबह में थोड़ी ठिठुराई सी धूप
गर्मी में आती मुडेर पर गुस्से में हो लाल
दोपहरी में ज्वाला बनती , गुस्साई सी धूप
वर्षा में बादल बच्चों सी अठखेली करते हैं
लुका छिपी करती उनसे ,मुस्काई सी धूप
वर्षा की बूंदों से मिल कर , श्रृंगारित होती है
इन्द्रधनुष की वेणी पहने , शरमाई सी धूप
पतझड़ के पेड़ों से कहती - ये क्या हाल बनाया
सूखे पत्तों को झड्काती , पुरवाई सी धूप
दिन का मौसम कैसा भी हो, शाम मगर वैसी ही
जैसे सूरज ढलता जाता , कुम्हलाई सी धूप
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
आग रिश्तों को लगा दो
रात गहरी चाँद मद्धम, मिल सकेगी राह क्योंकर
घोर जंगल मार्ग दुर्गम, कोई हो आगाह क्योंकर
आदमी से जानवर अब, जानवर से आदमी हैं
कौन किसको मीत समझे , और हो निर्वाह क्योंकर
जिसको था सर्वस्व सौंपा , उसने ही सर्वस्व लूटा
मौन अब वाणी बना है , सांस बन गयी आह क्योंकर
साथ जीने की कसम ली , साथ मरने की कसम ली
मृत्यु से पहले चिता दी , जिंदगी को दाह क्योंकर
आग रिश्तों को लगा दो , मृत्यु किश्तों की मिटा दो
ख़त्म कर दो बन्धनों को , अब चलें उस राह क्योंकर
घोर जंगल मार्ग दुर्गम, कोई हो आगाह क्योंकर
आदमी से जानवर अब, जानवर से आदमी हैं
कौन किसको मीत समझे , और हो निर्वाह क्योंकर
जिसको था सर्वस्व सौंपा , उसने ही सर्वस्व लूटा
मौन अब वाणी बना है , सांस बन गयी आह क्योंकर
साथ जीने की कसम ली , साथ मरने की कसम ली
मृत्यु से पहले चिता दी , जिंदगी को दाह क्योंकर
आग रिश्तों को लगा दो , मृत्यु किश्तों की मिटा दो
ख़त्म कर दो बन्धनों को , अब चलें उस राह क्योंकर
रविवार, 5 दिसंबर 2010
अपने अपने दायरे
हर दिन शुरू होता है
सूरज की किरणों के साथ
पूर्व से आती वो शक्ति की रेखाएं
भर देती हैं पृथ्वी को
उजास से ऊर्जा से उत्साह से
अंतर्ध्यान हो जाता हैं
अन्धकार,आलस्य ,प्रमाद
जैसे जैसे सूरज चढ़ता है
किरणे प्रखर होती हैं
कार्यशील होती है
पृथ्वी पर श्रृष्टि
पशु पंक्षी कीट पतंग और मनुष्य
लग जाते हैं अपने जीवन के सँचालन में
सब ने बना रखे हैं
अपनी अपनी जरूरतों के दायरे
उस दायरे के अन्दर
उसे सब कुछ चाहिए
उसके लिए वो घुस सकता है
दूसरे के दायरे में भी
क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे का भोजन है
क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व को खतरा है
जानवर का दायरा छोटा है
जिसकी जरूरत है सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा
आदमी का दायरा सबसे बड़ा
जिसमे समा जाते हैं
बाकी सारे दायरे
क्योंकि आदमी की भूख और जरूरतें अनंत हैं
जिसमे सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा ही नहीं
एक लम्बी फेहरिस्त है चीजों की -
जैसे की
लोमड़ी की खाल से बना फर का कोट
सांप की चमड़ी से बने जूते
खरगोश की आँखों पर आजमाए गए शृंगार के साधन
हिरन की खाल से बने गलीचे
हाथी के दांत की सजावट
शेर के मुह का दीवार-पोश
इतना ही नहीं
फेहरिस्त और भी लम्बी है
परमाणु बम - वृहद् नर संहार के लिए
रसायन - मनुष्य को लाचार बनाने के लिए
बारूद - विस्फोट में लोगों को उड़ा देने के लिए
अनंत है फेहरिस्त
मनुष्य नाम के जानवर की जरूरतों की
इस बड़े दायरे से बाहर सिर्फ एक दायरा है
ईश्वर का दायरा
निरंतर कोशिश करता है
जिस में घुस जाने की इंसान
कभी अंतरिक्ष में घुस कर
कभी जीव की रचना -
उन नियमो के बाहर जाकर कर के
या फिर शायद
यह भी मनुष्य की एक कपोल कल्पना है
अपने दायरे से बाहर जो कुछ है -
उसे वो ईश्वर कह देता है
धीरे धीरे अपना दायरा बड़ा बनाता जाता है
और उसका दायरा छोटा
फिर भी डरता है उससे
क्योंकि वो - सिर्फ वो
आदमी को उसका कद याद दिलाता है
कभी भूकंप से , कभी सुनामी से ,
कभी कैंसर से , कभी एड्स से
और तब ये लाचार इन्सान
गिड़गिडाता है भीख मांगता है
अपने घुटनों पर गिर कर
ईश्वर भी चकित है
अपने इस निर्माण पर
क्योंकि वो देखता है
उस विध्वंस को
जो धर्म के नाम पर करता है इंसान
कुछ और नहीं तो
ईश्वर को ही भागीदार बना कर .
सूरज की किरणों के साथ
पूर्व से आती वो शक्ति की रेखाएं
भर देती हैं पृथ्वी को
उजास से ऊर्जा से उत्साह से
अंतर्ध्यान हो जाता हैं
अन्धकार,आलस्य ,प्रमाद
जैसे जैसे सूरज चढ़ता है
किरणे प्रखर होती हैं
कार्यशील होती है
पृथ्वी पर श्रृष्टि
पशु पंक्षी कीट पतंग और मनुष्य
लग जाते हैं अपने जीवन के सँचालन में
सब ने बना रखे हैं
अपनी अपनी जरूरतों के दायरे
उस दायरे के अन्दर
उसे सब कुछ चाहिए
उसके लिए वो घुस सकता है
दूसरे के दायरे में भी
क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे का भोजन है
क्योंकि एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व को खतरा है
जानवर का दायरा छोटा है
जिसकी जरूरत है सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा
आदमी का दायरा सबसे बड़ा
जिसमे समा जाते हैं
बाकी सारे दायरे
क्योंकि आदमी की भूख और जरूरतें अनंत हैं
जिसमे सिर्फ भोजन और आत्म रक्षा ही नहीं
एक लम्बी फेहरिस्त है चीजों की -
जैसे की
लोमड़ी की खाल से बना फर का कोट
सांप की चमड़ी से बने जूते
खरगोश की आँखों पर आजमाए गए शृंगार के साधन
हिरन की खाल से बने गलीचे
हाथी के दांत की सजावट
शेर के मुह का दीवार-पोश
इतना ही नहीं
फेहरिस्त और भी लम्बी है
परमाणु बम - वृहद् नर संहार के लिए
रसायन - मनुष्य को लाचार बनाने के लिए
बारूद - विस्फोट में लोगों को उड़ा देने के लिए
अनंत है फेहरिस्त
मनुष्य नाम के जानवर की जरूरतों की
इस बड़े दायरे से बाहर सिर्फ एक दायरा है
ईश्वर का दायरा
निरंतर कोशिश करता है
जिस में घुस जाने की इंसान
कभी अंतरिक्ष में घुस कर
कभी जीव की रचना -
उन नियमो के बाहर जाकर कर के
या फिर शायद
यह भी मनुष्य की एक कपोल कल्पना है
अपने दायरे से बाहर जो कुछ है -
उसे वो ईश्वर कह देता है
धीरे धीरे अपना दायरा बड़ा बनाता जाता है
और उसका दायरा छोटा
फिर भी डरता है उससे
क्योंकि वो - सिर्फ वो
आदमी को उसका कद याद दिलाता है
कभी भूकंप से , कभी सुनामी से ,
कभी कैंसर से , कभी एड्स से
और तब ये लाचार इन्सान
गिड़गिडाता है भीख मांगता है
अपने घुटनों पर गिर कर
ईश्वर भी चकित है
अपने इस निर्माण पर
क्योंकि वो देखता है
उस विध्वंस को
जो धर्म के नाम पर करता है इंसान
कुछ और नहीं तो
ईश्वर को ही भागीदार बना कर .
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