चुनाव की भट्टी में सारे दल तप गए
बड़ों के छोटों के सब के कद नप गए
बड़ी बड़ी हांकते थे जनता के आगे
जनता की आंधी में सारे ही खप गए
जिनको परहेज था मोदी की बातों से
दोस्ती की चाहत में खड़े खड़े थक गए
जहर जो उगलते थे , आज फ़िक्र करते हैं
बेवजह ही इतना तब किस लिए यूँ बक गए
रस्सियाँ तो जल गयी , बट लेकिन बाकी है
बट सीधे होंगे कब , बंट बंट के बंट गए।
सामयिक और गज़ब की धार लिए ग़ज़ल ... बधाई ...
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