Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

सोमवार, 14 नवंबर 2011

भीड़ में इकाई हम


आज मैं  ग़रीब हूँ 
बिगड़ा नसीब हूँ 
दस  लाख रुपैये हैं
बस केवल रुपैये है  
दस  कम नहीं होते 
फिर भी  ग़म नहीं धोते 
कल मैं अमीर था 
जेब से फ़कीर था 
गाँव में जब रहता था 
मजे में रहता था 
झोपडी  इक  कच्ची थी 
लेकिन जो सच्ची   थी 
झोपडी के बाहर हल था
मुश्किलों  का हल था 
दूर कहीं दस बीघा खेत था 
पेड़ पौधे और फसलों  समेत था
जिसको मैं पालता था  
जिसमे मैं डालता था 
थोड़े से बीज और ढेर सा पसीना
गर्मी हो सर्दी हो या बारिश का महीना  
और फिर कटाई पर , उत्सव मनाते थे
रातों को बैठ कर सब  बिरहा सुनाते थे
बैलों को हांक कर राजा से चलते थे
गोबर बुहार कर चूल्हों पर मलते थे 
पत्नी जब मिटटी की
हांडी चढ़ाती थी 
बाजरे की खिचड़ी की 
खुशबू फ़ैल जाती  थी
खा कर जब मूंज की 
खटिया पर सोते थे 
थके हारे जीवन के 
सपने संजोते थे
फिर ये क्या हुआ अब है 
लुट गया मेरा सब है
दस बीघा बेच कर 
छोड़ दिया गाँव घर 
रुपैये ये पायें हैं 
शहर में आये हैं 
बदले में खेत के 
शहर में  इस रेत के  
दस फुट की एक दुकान 
भाड़े का एक मकान
मुश्किल से आएगा 
घर को चलाएगा 
होकर के शहरों  के
गूंगों के बहरों के 
आकर करीब हम 
कितने ग़रीब हम
क्या दें दुहाई हम 
भीड़ में इकाई हम    
  

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर भावों को शब्दों मे बड़ी खूबसूरती से पिरोया है आपने शुभकामनायें समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  2. खटिया पर सोते थे
    थके हारे जीवन के
    सपने संजोते थे

    वाह क्या बात लिखी
    धन्यवाद गुड्डो दादी चिकागो से

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  3. समय समय की बात है भौतिक सुखों के आगे कुछ दिखाई नहीं देता सही ह्कः आपने अब हम गरीब है .....

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  4. सच को आपने कितनी खूबसूरती से शब्दों में ढाला है.

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  5. आज मैं ग़रीब हूँ
    बिगड़ा नसीब हूँ
    दस लाख रुपैये हैं
    बस केवल रुपैये है
    दस कम नहीं होते
    फिर भी ग़म नहीं धोते
    कल मैं अमीर था
    जेब से फ़कीर था
    गाँव में जब रहता था
    मजे में रहता था
    झोपडी इक कच्ची थी
    लेकिन जो सच्ची थी

    bahut sundar aur saarthak post , badhai.

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