Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

शनिवार, 22 जनवरी 2011

मैं क्या मेरा अस्तित्व है क्या

खुद को तकता आईने में

और खुश होता मन ही मन में

मैं तो मैं हूँ

मैं ही मैं हूँ

मैं मैं में उलझा रहता मैं

बस मैं की सुनता रहता मैं

लेकिन जब मैं बाहर निकला

मैं से मैं भी बाहर निकला

दुनिया देखी जब घूम घूम

पाई बस उसकी धूम धूम

अब लगता हैं मैं तो क्या हूँ

खुद को छोटा सा लगता हूँ

मैं क्या मेरा अस्तित्व है क्या

मेरा अपना महत्व ही क्या

ईश्वर की इस उंचाई पर

नीचे तक की गहराई पर

खुद को खो कर उसको पाया

मन शुद्ध हुआ जब रो पाया

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

उससे डरो

हम खरीदते हैं , बेचते हैं जमीन के टुकड़े
इतनी बड़ी पृथ्वी का एक छोटा सा हिस्सा मेरा
मैं इसका मालिक हूँ - ऐसा हम सोचते हैं
इस तरह से हमने आपस में बाँट डाली ,
बेच डाली सारी पृथ्वी
इस मल्कियत के लिए होते हैं
झगडे , मुकदमे और खून खराबे
हम बना लेते हैं अपने घर और दुकान
अपने टुकड़े पर
इन्हें बनाने के लिए लेते हैं
लिखित आज्ञा नगर निगम से और सरकार से
लेकिन कभी आज्ञा ली उस से
जिसने बनाया पृथ्वी को
सिर्फ बनाया ही नहीं , बसाया भी
देकर धूप, पानी , मिटटी खेत , पर्वत, नदियाँ ,पेड़ पौधे
वनस्पति , जीव , जानवर और खुद हमें
हम उपभोग करते हैं इन सब का
बिना उसकी आज्ञा के
आज्ञा हमने ली नहीं, लेकिन उसने दी है
उपभोग करने की , उपयोग करने के
इसीलिए हम कर पा रहें हैं
वर्ना जिस दिन उसने "ना " में सर हिला दिया
उस दिन हिल जायेगी सारी पृथ्वी
धूल में मिल जायेंगे तुम्हारे महल
खाक हो जाएगी तुम्हारी दुकान
और साफ़ हो जाओगे तुम

इसलिए उसकी आज्ञा में रहो
उससे डरो तुम
क्योंकि जिसने दी हैं
जिंदगी , वनस्पति , चाँद और सूरज
वही दे सकता है
मृत्यु , सुनामी , भूकंप और बाढ़

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

खुदगर्ज हूँ मैं

खुद पे ही खुद का कर्ज हूँ मैं
खुद हूँ दवा खुद मर्ज हूँ मैं


जी रहा हूँ मैं बस अपने वास्ते
हूँ कितना स्वार्थी खुदगर्ज हूँ मैं


सोचता हूँ मैं मेरे परिवार तक
बस इतने दायरे में अपना फर्ज हूँ मैं


जिन्दा रह सकूँ बस इतना सोच कर
सांस लेने की महज इक गर्ज हूँ मैं


जिंदगी का साज यूँ ही बज रहा
सुर में बेसुर में जो तर्ज हूँ मैं


उसकी फेहरिस्त से भला बचा है कौन
थोडा आगे या पीछे - पर दर्ज हूँ मैं

बुधवार, 5 जनवरी 2011

पत्थर और फूल

कितना मजबूत होता है पत्थर
कितना अडिग कितना अटल
कभी टूटता नहीं
कभी फूटता नहीं
जितना बड़ा हो उतना भारी
जितना गड़ा हो उतना भारी
वर्षा की झड़ से गलता नहीं
सूरज की किरणों से जलता नहीं
कीट पतंग  इसे खा नहीं सकते
जंगल के जानवर हिला नहीं सकते
कितना मजबूत होता है पत्थर
कितना मजबूत होता है पत्थर !

कितना कमजोर होता है फूल
कितना लाचार कितना निर्भर
तोड़ो तो टूट जाता है
छेड़ो तो बिखर जाता है
छोटा सा कितना हल्का सा
हवा से हिलता डुलता सा
सावन की बारिश को सह नहीं सकता
जेठ की किरणों में रह नहीं सकता
तितली भ्रमर कीट इसे खा ले
धीमी सी पवन इस डुला ले
कितना कमजोर होता है फूल
कितना कमजोर होता है फूल !

लेकिन पत्थर ! तुम किसी को क्या दे सकते हो
पत्थर हो बस कठोरता दे सकते हो
नंगे पैरों के लिए अंगार हो तुम
क्रोधित मन के लिए हथियार हो तुम
आपस में मिलो तो आग उगलते हो
बीच में कोई आये तो उसे मसलते हो
वर्षा की बूंदे बिखरती हैं तुम पर
संगीत की ध्वनि भी मुडती है तुम पर
पत्थर हो संगदिल हो , क्या दे सकते हो
अपनी निर्मम कठोरता दे सकते हो !

फूल  तुम छोटे सही ! सब तुम्हे कितना प्यार करते हैं
फूल तुम हलके सही ! सब कितना दुलार करते हैं
श्वासों  के लिए मधुर गंध हो
आँखों के लिए गुलाबी ठण्ड हो
ओस की बूंदों का शृंगार हो
भंवरों के लिए रस की धार हो
चित्रकार के रंगों की कल्पना हो
पर्व पर आँगन की अल्पना हो
मीठे संगीत का वातावरण हो
ईश्वर की मूर्ति का अलंकरण हो
भक्त के हाथों में पूजन हो
दुल्हन के हाथों में कंगन हो
प्रेमिका को प्यारा उपहार हो तुम
बुजुर्गों का आदर सत्कार हो तुम
तोरण हो सजे हुए द्वार पर तुम
भारी हो मोतियों के हार पर तुम
दुल्हे के माथे पर सेहरा हो
नवजात शिशु का चेहरा हो
विजय के क्षण में जयनाद हो
यज्ञवेदी  पर आशीर्वाद हो 
स्वागत हो जीवन के जन्म पर तुम
अंत तक के साथी मृत्यु पर तुम

एक प्रार्थना है ईश्वर से - गलत या सही
फूल सा कमजोर बना , पत्थर सा मजबूत नहीं