मुझको कुछ सामान चाहिए
थोडा सा सामान चाहिए
मुझको दौलत नहीं चाहिए
मुझको इज्जत नहीं चाहिए
नहीं चाहिए हीरे मोती
मुझको शोहरत नहीं चाहिए
राज पाट की चाह नहीं है
ठाठ बाट की चाह नहीं है
नहीं चाहिए तोप तमंचे
मार काट की चाह नहीं हैं
मुझे पांव भर जगह चाहिए
मुझे सांस भर हवा चाहिए
मुझे चाहिए प्यार सभी का
मुझे उम्र भर दुआ चाहिए
मुझे हाथ भर काम चाहिए
थोडा सा विश्राम चाहिए
मुझे चाहिए नींद रात भर
आँख मूँद कर राम चाहिए
थोडा सा आकाश चाहिए
वर्षा का आभास चाहिए
इन्द्रधनुष का मेरा टुकड़ा
तकने का अवकाश चाहिए
मुझको मेरे ख्वाब चाहिए
अन्तर में इक आग चाहिए
मेरे आँगन की बगिया में
गेहूं नहीं गुलाब चाहिए
जीवन का कुछ अर्थ चाहिए
नहीं जिंदगी व्यर्थ चाहिए
औरों के कुछ काम आ सकूं
इतना स्वयं समर्थ चाहिए
सौदे में ईमान चाहिए
वाणी गुड की खान चाहिए
नहीं चाहिए झूठी इज्जत
मुझको स्वाभिमान चाहिए
मुझको कुछ सामान चाहिए
थोडा सा सामान चाहिए
जीवन को जीवित रखने को
इतना सा सामान चाहिए
मैंने यहाँ खुला रख छोड़ा है , अपने मन का दरवाजा! जो कुछ मन में होता है , सब लिख डालता हूँ शब्दों में , जो बन जाती है कविता! मुझे जानना हो तो पढ़िए मेरी कवितायेँ !
Mahendra Arya
बुधवार, 10 नवंबर 2010
बुधवार, 3 नवंबर 2010
रोशनी का दिन
आ जिंदगी , चल बैठ कहीं गुफ्तगू करें
दिल को सुकून मिल सके ये जुस्तजू करें
मुश्किलों से भाग कर हम जायेंगे कहाँ
आ मुश्किलों का सामना हो रूबरू करें
देखें किसी को बांटते औरों के ग़म कभी
चल हम भी उनसे सीख कर वो हुबहू करें
दीपावली का दिन है , चिराग जलाएं
दिल में मुकम्मल रोशनी की आरजू करें
दिल को सुकून मिल सके ये जुस्तजू करें
मुश्किलों से भाग कर हम जायेंगे कहाँ
आ मुश्किलों का सामना हो रूबरू करें
देखें किसी को बांटते औरों के ग़म कभी
चल हम भी उनसे सीख कर वो हुबहू करें
दीपावली का दिन है , चिराग जलाएं
दिल में मुकम्मल रोशनी की आरजू करें
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
दीपावली का दिया
टिमटिमाते हैं - असंख्य दिए मिटटी के
अमावस्या की रात को जगमगाते हैं
नजर आती है अनेक कतारे रौशनी की
मुंडेरों,खिडकियों,चौखटों पे जुगनू झिलमिलाते हैं
जैसे जैसे रात गहराती है
कांपती है कुछ दीयों की लौ
कुछ देर फडफडाती है
फिर खो जाती है वो
दिया मिटटी का वही है, वैसा ही है
लेकिन ख़त्म हो गया है तेल उसका
जिसमे डूबी बाती देती थी रौशनी
बस ख़त्म हो गया है खेल उसका
कुछ दियों में तेल शेष था
लेकिन हवा का झोंका भी तेज था
लौ लडती रही अंत तक यथाशक्ति
अंततः हार कर बुझ गयी लौ उसकी
हम भी तो दीपक हैं मिटटी के
अमावस्या है उम्र हमारी
पृथ्वी है घर द्वार मुंडेरों सी
जिस पर बिखरी मानवता सारी
जीवन का दुःख ही अँधेरा है
दुःख की रातें कितनी काली है
सुख के क्षण जीवन में रौशनी से
जिनसे होती दिवाली है
सांसे हैं तेल , हम दियों का
आत्मा है लौ जगमगाती है
जीवन के संघर्ष मुश्किलें सारी
हवा सी - जो लडती बुझाती है
पर दिया कभी प्रश्न नहीं करता
क्यों भेजा इन निर्मम हवाओं को
इतने मासूम , लाचार और नन्हे हैं हम
क्यों होने दिया इन खताओं को
दिया जानता है कर्त्तव्य अपना
पल पल जलना, पल पल लड़ना
जब तक अस्तित्व है उसका
तब तक सब आलोकित करना
मिटटी हैं हम , मिटटी है वो
क्षणभंगुर हम, क्षणभंगुर वो
जीवन का पाठ पढाता है
जब तक जलती रहती है लौ
आओ दिवाली मनाएं हम
जब मिटटी के दीपक जलाएं हम
एक क्षण को आँखें मूँद ले तब
और दीपक को जीवन में लायें हम
अमावस्या की रात को जगमगाते हैं
नजर आती है अनेक कतारे रौशनी की
मुंडेरों,खिडकियों,चौखटों पे जुगनू झिलमिलाते हैं
जैसे जैसे रात गहराती है
कांपती है कुछ दीयों की लौ
कुछ देर फडफडाती है
फिर खो जाती है वो
दिया मिटटी का वही है, वैसा ही है
लेकिन ख़त्म हो गया है तेल उसका
जिसमे डूबी बाती देती थी रौशनी
बस ख़त्म हो गया है खेल उसका
कुछ दियों में तेल शेष था
लेकिन हवा का झोंका भी तेज था
लौ लडती रही अंत तक यथाशक्ति
अंततः हार कर बुझ गयी लौ उसकी
हम भी तो दीपक हैं मिटटी के
अमावस्या है उम्र हमारी
पृथ्वी है घर द्वार मुंडेरों सी
जिस पर बिखरी मानवता सारी
जीवन का दुःख ही अँधेरा है
दुःख की रातें कितनी काली है
सुख के क्षण जीवन में रौशनी से
जिनसे होती दिवाली है
सांसे हैं तेल , हम दियों का
आत्मा है लौ जगमगाती है
जीवन के संघर्ष मुश्किलें सारी
हवा सी - जो लडती बुझाती है
पर दिया कभी प्रश्न नहीं करता
क्यों भेजा इन निर्मम हवाओं को
इतने मासूम , लाचार और नन्हे हैं हम
क्यों होने दिया इन खताओं को
दिया जानता है कर्त्तव्य अपना
पल पल जलना, पल पल लड़ना
जब तक अस्तित्व है उसका
तब तक सब आलोकित करना
मिटटी हैं हम , मिटटी है वो
क्षणभंगुर हम, क्षणभंगुर वो
जीवन का पाठ पढाता है
जब तक जलती रहती है लौ
आओ दिवाली मनाएं हम
जब मिटटी के दीपक जलाएं हम
एक क्षण को आँखें मूँद ले तब
और दीपक को जीवन में लायें हम
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