Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

रविवार, 3 अप्रैल 2016

कोलकाता का कहर



आज फिर एक पुल गिरा
वर्षों पहले यहाँ जब ये पुल नहीं था
बहुत से लोग आते जाते थे इस चौरस्ते से
गाड़ियां , रिक्शे ,पैदल , झाका  वाले

चौरस्ते के एक कोने पर था -एक सिनेमा हाल
गणेश टॉकीज
दूसरी तरफ एक मिठाई की दुकान
तीसरी तरफ एक शरबत वाला
और चौथी तरफ एक रिहायशी मकान

सब सुखी थे
किसी को शिकायत नहीं थी
इस भीड़ से
इस चौरस्ते से

फिर एक दिन नजर पड़ी
सरकार की
और उसने फैसला लिया
एक पुल  बनाने का

वर्षों बीत गए
भीड़ बढ़ती रही
रास्ता घटता रहा
लेकिन कोई पुल नहीं बना

चुनाव हुआ
सत्ता बदल गयी
नयी सरकार आ गयी
लेकिन पुल नहीं बना

जनता सहती रही
जीवन को फिर आदत सी पड़  गयी
उस बिन बने पुल के कारण
घटे हुए रास्ते की

लेकिन फिर चुनाव आ गए
फिर नज़र पड़ी सरकार की
ये पुल अब तक क्यों नहीं बना
चुनाव से पहले बनना चाहिए

फिर हुआ जीवन अस्त व्यस्त
सुस्त पड़े पुल के निर्माण में सब व्यस्त
रातोंरात सब कुछ करना है
चुनाव से पहले लोकार्पण करना है

लेकिन ये क्या ?
पुल को सुस्त रहने की आदत थी
एक साथ इतना कुछ लाद दिया उस पर
किसी ने उससे नहीं पूछा -

भाई पुल , तुम ठीक तो हो न ?
कहीं बुढ़ापे ने तुम्हे कमजोर तो नहीं कर दिया न ?
तुम ये नया बोझ ढो  तो सकोगे न ?
तुम्हारे पैर धोखा तो नहीं देंगे  न ?

और उस रात पुल पर हुयी ढलाई
पुल की कमजोर आत्मा चरमराई
दोपहर तक जैसे तैसे झेला
लेकिन फिर ढह गया खेला

हाहाकार मच गया
कोई दब गया
कोई मर गया
कोई बच गया

राजनीति शुरू हुयी
ठेका पिछली सरकार ने दिया था
ठेका देने का पैसा
उसने लिया था

लेकिन तुमने क्या किया
कभी उस ठेकेदार का जायजा लिया
और फिर अचानक तुम्हे दिखा एक वोट बैंक
सोचा क्यूँ न इसका फायदा लिया

कितना कुछ दब गया
इस पुल के नीचे
किसी पत्नी का सुहाग
किसी परिवार का चिराग

किसी जवानी  के सपने
किसी  बुढ़ापे के अपने
किसी बच्चे का बाप
किसी पत्नी का प्रलाप

हाँ कुछ और भी तो दबा है
तुम्हारा वो वोट बैंक
तुम्हारी ये विधान सभा की गद्दी
अब हुयी रद्दी !

दोष किसका है ?
पिछली सरकार का ?
अगली सरकार का ?
ख़राब ठेकेदार का ?
या सरकारी भ्रष्टाचार का ?
मिलावटी सीमेंट और ग़ारे का ?
या भ्रष्ट भाईचारे का ?
आरक्षण कोटे के इंजीनियर का ?
या सिफारिश से आये ओवरसियर का ?
देश की दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था का ?
या अवस्था के लिए जिम्मेवार व्यवस्था का ?





मेरी ख़ामोशी रज़ा सी हो गयी


जिंदगी कुछ बेमज़ा  सी हो गयी 
साँस लेना ही वजह सी हो गयी 

मुझसे कुछ पूछे बिना सब कुछ हुआ 
मेरी ख़ामोशी रज़ा सी हो गयी 

मुस्कुराने की वजह मिलती नहीं 
मुस्कराहट भी सज़ा  सी हो गयी

 फेफड़ों में जहर सा यूँ भर रहा 
जैसे ज़हरीली फ़िज़ा सी हो गयी 

लड़ रहा हर वक़्त कोई जिंदगी से 
जिंदगी भी यूँ कज़ा सी हो गयी