Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

एक बरस बाद


समय बीतता रहता
समय जीतता रहता
हम ही हारते रहते 
मन को मारते रहते

रोज कुछ कमा लिया
रोज कुछ गंवा दिया 
कुछ भी कमा कर के 
कुछ भी गंवा कर के

जीवन चलाते हैं
दो रोटी खातें हैं
साँसें नहीं रूकती
घडी भी नहीं थकती

फिर भी कुछ अपने में 
रिक्त हुआ लगता है
कोई जो अपना था 
मुक्त हुआ लगता है

भीड़ भरे मेले में
दुनिया के रेले में
हाथ जैसे छूट गया 
कोई सब लूट गया

एक वर्ष बाद भी
तडपाती याद भी
जीवन पर चलता है
अन्दर से  गलता है

लोग चले जाते हैं 
और याद आते हैं
बीते हुए वो पल 
जीवन बन जाते हैं  

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