Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

बुधवार, 18 मई 2011

काश !

काश ! हर इंसान इक अवतार होता !
और ही होती धरा ,
कुछ और ही संसार होता

ना कहीं अपराध होता
ना कोई बर्बाद होता
ना कोई इल्जाम होता
ना कोई बदनाम होता
पुलिस थाने ही ना होते
जेलखाने ही ना होते
ना कोई होती अदालत
ना कोई होती वकालत
ना कोई कानून होता
न्याय का ना खून होता
हर कचहरी की जगह पर
चमन इक गुलजार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता !

घर की रक्षा के लिए
कुत्ते ना पाले होते
द्वार पर कुण्डी ना होती
और ना ताले होते
खिड़कियाँ होती मगर
होती ना यूँ सलाखें
रात को दरवान की
जगती ना रहती आँखें
हाथ में होती घडी
बनती ना कोई हथकड़ी
धातु तो होता मगर
कुछ और ही व्यवहार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता !

देश की सीमा ना होती
और फिर सेना ना होती
ना कोई हथियार होते
युद्ध के ना आसार होते
ना कोई बन्दूक होती
ना भरी बारूद होती
विश्व सबका देश होता
प्रेम का परिवेश होता
शांति का संवाद होता
और न आतंकवाद होता
प्राण लेने को किसी के
ना कोई लाचार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता !

हे प्रभो ! तू कर सके तो
ऐसा ही कुछ योग कर
हों सभी अवतार तेरे
ऐसा कुछ प्रयोग कर
यह धरा वर्ना किसी दिन
खून में बह  जायेगी
देख तेरी श्रृष्टि यह
निष्प्राण फिर रह जायेगी
तूने ही सबको बनाया
तूने ही सब कुछ कराया
तू अगर जो चाहता
ऐसा ना ये संसार होता
काश ! हर इंसान इक अवतार होता


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