Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

बुधवार, 10 नवंबर 2010

चाहतें एक आम आदमी की

मुझको कुछ सामान चाहिए
थोडा सा सामान चाहिए

मुझको दौलत नहीं चाहिए
मुझको इज्जत नहीं चाहिए
नहीं चाहिए हीरे मोती
मुझको शोहरत नहीं चाहिए

राज पाट की चाह नहीं है
ठाठ बाट की चाह नहीं है 
नहीं चाहिए तोप तमंचे 
मार काट की चाह नहीं हैं 

मुझे पांव  भर जगह चाहिए 
मुझे सांस भर हवा चाहिए 
मुझे चाहिए प्यार सभी का 
मुझे उम्र भर दुआ चाहिए 

मुझे हाथ भर काम चाहिए 
थोडा सा विश्राम चाहिए 
मुझे चाहिए नींद रात भर 
आँख मूँद कर राम चाहिए 

थोडा सा आकाश चाहिए 
वर्षा का आभास  चाहिए 
इन्द्रधनुष का मेरा टुकड़ा 
तकने का अवकाश चाहिए 

मुझको मेरे ख्वाब चाहिए 
अन्तर में इक आग चाहिए 
मेरे आँगन की बगिया में 
गेहूं नहीं गुलाब चाहिए 

जीवन का कुछ अर्थ चाहिए 
नहीं जिंदगी व्यर्थ चाहिए 
औरों के कुछ काम आ सकूं 
इतना स्वयं समर्थ चाहिए

सौदे में ईमान चाहिए 
वाणी गुड की खान चाहिए 
नहीं चाहिए झूठी इज्जत 
मुझको स्वाभिमान चाहिए 

मुझको कुछ सामान चाहिए 
थोडा सा सामान चाहिए 
जीवन को जीवित रखने को   
इतना सा सामान चाहिए






बुधवार, 3 नवंबर 2010

रोशनी का दिन

आ जिंदगी , चल बैठ कहीं गुफ्तगू करें

दिल को सुकून मिल सके ये जुस्तजू करें


मुश्किलों से भाग कर हम जायेंगे कहाँ

आ मुश्किलों का सामना हो रूबरू करें


देखें किसी को बांटते औरों के ग़म कभी

चल हम भी उनसे सीख कर वो हुबहू करें


दीपावली का दिन है , चिराग जलाएं

दिल में मुकम्मल रोशनी की आरजू करें

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

दीपावली का दिया

टिमटिमाते हैं - असंख्य दिए मिटटी के
अमावस्या की रात को जगमगाते हैं
नजर आती है अनेक कतारे रौशनी की
मुंडेरों,खिडकियों,चौखटों पे जुगनू झिलमिलाते हैं

जैसे जैसे रात गहराती है
कांपती है कुछ दीयों की लौ
कुछ देर फडफडाती है
फिर खो जाती है वो

दिया मिटटी का वही है, वैसा ही है
लेकिन ख़त्म हो गया है तेल उसका
जिसमे डूबी बाती देती थी रौशनी
बस ख़त्म हो गया है खेल उसका

कुछ दियों में तेल शेष था
लेकिन हवा का झोंका भी तेज था
लौ लडती रही अंत तक यथाशक्ति
अंततः हार कर बुझ गयी लौ उसकी

हम भी तो दीपक हैं मिटटी के
अमावस्या है उम्र हमारी
पृथ्वी है घर द्वार मुंडेरों सी
जिस पर बिखरी मानवता सारी

जीवन का दुःख ही अँधेरा है
दुःख की रातें कितनी काली है
सुख के क्षण जीवन में रौशनी से
जिनसे होती दिवाली है

सांसे हैं तेल , हम दियों का
आत्मा है लौ जगमगाती है
जीवन के संघर्ष मुश्किलें सारी
हवा सी - जो लडती बुझाती है

पर दिया कभी प्रश्न नहीं करता
क्यों भेजा इन निर्मम हवाओं को
इतने मासूम , लाचार और नन्हे हैं हम
क्यों होने दिया इन खताओं को

दिया जानता है कर्त्तव्य अपना
पल पल जलना, पल पल लड़ना
जब तक अस्तित्व है उसका
तब तक सब आलोकित करना

मिटटी हैं हम , मिटटी है वो
क्षणभंगुर हम, क्षणभंगुर वो
जीवन का पाठ पढाता है
जब तक जलती रहती है लौ

आओ दिवाली मनाएं हम
जब मिटटी के दीपक जलाएं हम
एक क्षण को आँखें मूँद ले तब
और दीपक को जीवन में लायें हम