हाँ मैं पेड़ हूँ
तुम्हारी ही तरह श्रष्टि का एक अंग
एक बात मेरा मन कहता है
न तुमने मुझे बनाया
न मैंने तुम्हे
मैं नहीं - त्रैतवाद ऐसा कहता है
ईश्वर , जीव और प्रकृति
तीन अलग अलग सत्ता
जो विद्यमान थी श्रृष्टि से पहले
जो विद्यमान होगी प्रलय के बाद भी !
फिर तुम - यानि जीव
क्यों करते हो इतना अत्याचार मुझ पर ?
मेरे फूल तुम्हारे लिए श्रृंगार है
मेरे फल तुम्हारे आहार हैं
मेरे पत्ते देते हैं आश्रय तुम्हे
और तुम ?
मारते हो पत्थर फलों के लिए
चलाते हो कुल्हाड़ी मेरे टुकड़ों के लिए
तुम्हारा जन्म होता है
तो कुल्हाड़ी चलती है मुझ पर
क्योंकि तुम्हे एक पालना चाहिए
तुम्हारा विवाह हो
तो प्रहार करते हो मुझ पर
तुम्हे एक डोली चाहिए
तुम्हे पढने के लिए मेज चाहिए
तुम्हे सोने के लिए सेज चाहिए
छत को थामने के लिए शहतीर चाहिए
लड़ने को धनुष और तीर चाहिए
घर के द्वार पर दरवाजा चाहिए
दांतों के लिए दतुअन रोज ताजा चाहिए
बुढ़ापे में मेरे ही सहारे हो तुम
छड़ी के बिना बेसहारे हो तुम
और फिर मृत्यु तो तुम्हे आती है
लेकिन तुम्हारी चिता तुमसे पहले मुझे जलाती है
फिर भी मुझे कोई शिकायत नहीं तुमसे
हाँ एक छोटी सी विनती है तुमसे
मत काटो मेरे हरे भरे तन को
बेवजह मेरे बदन को
मत उजाडो जंगल इस धरा के
जो श्रृंगार हैं वसुंधरा के
इसमें भी तुम्हारा ही भला है
वर्ना आने वाला एक जलजला है
जो तुम्हारी संतति को खा जाएगा
तुम्हारा लालच यही धरा रह जाएगा
बहुत सुन्दर सामयिक रचना है प्रकृति की व्यथा को बखूबी चित्रित किया है..बहुत सुन्सर रचना!!
जवाब देंहटाएंबुढ़ापे में मेरे ही सहारे हो तुम
छड़ी के बिना बेसहारे हो तुम
और फिर मृत्यु तो तुम्हे आती है
लेकिन तुम्हारी चिता तुमसे पहले मुझे जलाती है
"सुन्दर" पढे।
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