Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

हनुमंतप्पा


वो सफ़ेद कब्रिस्तान -सियाचिन
जहाँ जीवित रहना एक विजय है
साँसे ले पाना - एक दिलासा
वहां !
हाँ वहां , पहरा देते हैं कुछ जुझारू जवान
घर की सुरक्षा से दूर
परिवार के प्यार से परे
शहरों की रंगरेलियों से अनजान
झेलते बर्फ के तूफ़ान !

ऐसा ही तूफ़ान आया उस दिन
दौड़ शुरू हुयी जीवन और मृत्यु के बीच
वो दस जवान , पीछे तूफान
एक एक कर के हारते गए
उस अस्सी मील प्रति घंटा की रफ़्तार से
आ रही मौत से !

हार नहीं मानी - लांस नायक हनुमंतप्पा  ने
सो गया बर्फ की चादर पर
ओढ़ ली बर्फ की रजाई
मौत से कह दिया - दस्तक मत देना
थका हुआ हूँ सोने दे मुझे
और फिर वो बर्फ का तकिया लगा कर
सो गया भारत माँ की गोद  में !
मौत एकटक देखती रही
भारत माँ के उस बहादुर बेटे को
हिम्मत नहीं पड़ी उसे जगाने की
पूरे छह दिनों तक !

मृत्यु का विजेता
घर आया , देश को प्रणाम किया
और फिर चला गया
अपनी मृत्यु अपनी इच्छा से चुन कर !

और उसी दिन
एक जलसा हुआ जवाहर लाल विश्वविद्यालय में
श्रद्धांजलि देने के लिए
शहीदों को !
लांस नायक हनुमंतप्पा को नहीं -
देश की संसद के आक्रमणकारी
अफजल गुरु को !
कस्मे खायी गयी
बर्बाद करने की -
दुश्मन को नहीं अपने देश की !

कितना रोई  होगी हनुमंतप्पा की आत्मा -
हमने अपना जीवन गलाया
ऐसी खौफनाक मृत्यु को गले लगाया
इन गद्दारों के लिए !

दुर्भाग्य है देश का
शहीदों के लिए दो आंसू बहाने का वक़्त नहीं
जेएनयू में पहुँचते हैं हमारे नेता
गद्दारों को बचाने  के लिए
मौके को भुनाने के लिए
वोटों को बढ़ाने के लिए !