Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

रात और दिन

रात खामोश खड़ी है
जैसे अपराध भाव लिए
रौशनी के दरिया के करीब
कूद कर प्राण देने को
रात जैसे यूँ अड़ी है !

रौशनी की प्रखर किरणे
कर देगी यूँ तार तार इसको
स्याह्पन सारा यूँ धुल जाएगा
रात का अस्तित्व ही जैसे
दिन में पूरा ही ज्यों घुल जाएगा !

लेकिन दिन भर के कारनामों से
फिर से उभरेगी कालिमा की लहर
फिर से स्याही चढ़ेगी दामन पर
फिर से एक और रात आएगी
मुह छिपाएगा जिसमे उजिआला
जैसे अपनी किये पे शर्मिंदा
हो के ज्यों दिन भी अब छुपा फिरता
सांझ की उँगलियों को थामे बस
दिन फिर एक बार रात में ढलता !

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों बाद आज आपके ब्लॉग तक आना हुआ , आई और काफी देर ठहर गयी | बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी | बहुत गहरे अर्थ रखती है आपकी हर रचना | हर सुबह , जब आती है तो कितनी प्यारी और उमंगों से भरी होती है बिलकुल बचपन की तरह निच्छल | और फिर दोपहर सूरज की चुभन , काम की थकन कैसे उस सुबह के उल्लास को फीका करने लगती है |
    और फिर शाम जो दिन के ढलने का संदेश लेकर आती है|और फिर पूरा दिन रात में बदल जाता है |इस तरह हर दिन रात में और रात दिन में बदलती जा ती है और जीवन आगे खिसकता सा प्रतीत होता है --सुबह होती है शाम होती है , उम्र यूँही तमाम होती है

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