Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

रविवार, 20 मार्च 2011

जापान की विभीषिका

जागते पहर पहर
रात है कहर कहर
क्यूं न नजर आ रही
एक नयी सहर सहर

सुख बने सपन सभी
दुःख भरे नयन सभी
जिंदगी न जाने क्यूं
है गयी ठहर ठहर

कंठ नीले पड़ गए
होंठ जैसे जड़ गए
अमृतों की चाह में
पी रहे जहर जहर

उड़ गयी चमक दमक
सिन्धु में भरा नमक
दुःख और दर्द की
उठ रही लहर लहर

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