Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

उससे डरो

हम खरीदते हैं , बेचते हैं जमीन के टुकड़े
इतनी बड़ी पृथ्वी का एक छोटा सा हिस्सा मेरा
मैं इसका मालिक हूँ - ऐसा हम सोचते हैं
इस तरह से हमने आपस में बाँट डाली ,
बेच डाली सारी पृथ्वी
इस मल्कियत के लिए होते हैं
झगडे , मुकदमे और खून खराबे
हम बना लेते हैं अपने घर और दुकान
अपने टुकड़े पर
इन्हें बनाने के लिए लेते हैं
लिखित आज्ञा नगर निगम से और सरकार से
लेकिन कभी आज्ञा ली उस से
जिसने बनाया पृथ्वी को
सिर्फ बनाया ही नहीं , बसाया भी
देकर धूप, पानी , मिटटी खेत , पर्वत, नदियाँ ,पेड़ पौधे
वनस्पति , जीव , जानवर और खुद हमें
हम उपभोग करते हैं इन सब का
बिना उसकी आज्ञा के
आज्ञा हमने ली नहीं, लेकिन उसने दी है
उपभोग करने की , उपयोग करने के
इसीलिए हम कर पा रहें हैं
वर्ना जिस दिन उसने "ना " में सर हिला दिया
उस दिन हिल जायेगी सारी पृथ्वी
धूल में मिल जायेंगे तुम्हारे महल
खाक हो जाएगी तुम्हारी दुकान
और साफ़ हो जाओगे तुम

इसलिए उसकी आज्ञा में रहो
उससे डरो तुम
क्योंकि जिसने दी हैं
जिंदगी , वनस्पति , चाँद और सूरज
वही दे सकता है
मृत्यु , सुनामी , भूकंप और बाढ़

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