Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

दीपावली का दिया

टिमटिमाते हैं - असंख्य दिए मिटटी के
अमावस्या की रात को जगमगाते हैं
नजर आती है अनेक कतारे रौशनी की
मुंडेरों,खिडकियों,चौखटों पे जुगनू झिलमिलाते हैं

जैसे जैसे रात गहराती है
कांपती है कुछ दीयों की लौ
कुछ देर फडफडाती है
फिर खो जाती है वो

दिया मिटटी का वही है, वैसा ही है
लेकिन ख़त्म हो गया है तेल उसका
जिसमे डूबी बाती देती थी रौशनी
बस ख़त्म हो गया है खेल उसका

कुछ दियों में तेल शेष था
लेकिन हवा का झोंका भी तेज था
लौ लडती रही अंत तक यथाशक्ति
अंततः हार कर बुझ गयी लौ उसकी

हम भी तो दीपक हैं मिटटी के
अमावस्या है उम्र हमारी
पृथ्वी है घर द्वार मुंडेरों सी
जिस पर बिखरी मानवता सारी

जीवन का दुःख ही अँधेरा है
दुःख की रातें कितनी काली है
सुख के क्षण जीवन में रौशनी से
जिनसे होती दिवाली है

सांसे हैं तेल , हम दियों का
आत्मा है लौ जगमगाती है
जीवन के संघर्ष मुश्किलें सारी
हवा सी - जो लडती बुझाती है

पर दिया कभी प्रश्न नहीं करता
क्यों भेजा इन निर्मम हवाओं को
इतने मासूम , लाचार और नन्हे हैं हम
क्यों होने दिया इन खताओं को

दिया जानता है कर्त्तव्य अपना
पल पल जलना, पल पल लड़ना
जब तक अस्तित्व है उसका
तब तक सब आलोकित करना

मिटटी हैं हम , मिटटी है वो
क्षणभंगुर हम, क्षणभंगुर वो
जीवन का पाठ पढाता है
जब तक जलती रहती है लौ

आओ दिवाली मनाएं हम
जब मिटटी के दीपक जलाएं हम
एक क्षण को आँखें मूँद ले तब
और दीपक को जीवन में लायें हम

1 टिप्पणी:

  1. आओ दिवाली मनाएं हम
    जब मिटटी के दीपक जलाएं हम
    एक क्षण को आँखें मूँद ले तब
    और दीपक को जीवन में लायें हम

    meri bhi aisee hi kuchh abhilasha.....:)
    deewali ki hardik subhkamnayen!!

    जवाब देंहटाएं