Mahendra Arya

Mahendra Arya
The Poet

बुधवार, 19 मई 2010

माँ

हुई लड़ाई मित्रों से और लड़ कर लौटा घर मैं
मन में गुस्सा और हताशा लेकर लौटा घर मैं
आंसू अटके थे पलकों पर मन पर पत्थर था
अच्छा कुछ भी नहीं लग रहा था जब लौटा घर मैं

माँ ने देखा हाल मेरा और सब कुछ समझ लिया
सर पर फेरा हाथ और सीने से लगा लिया
अब न रुक सके आंसू मेरे झर झर बह निकले
कस कर माँ को पकड़ा मुह आँचल में छुपा लिया

कैसे समझ लिया करती हर बात मेरी बचपन में
मैं कुछ कह भी न पाता जब - व्यथा मेरी जो मन में
माँ , मैं तेरा ही हिस्सा तू हरदम यह कहती थी
चोट मुझे लगती होता था दर्द तुम्हारे तन में

माँ ही देवी , माँ ही भक्ति , माँ पूजा ,माँ इश्वर
माँ ही दीपक, माँ ही आरती ,माँ तीरथ, माँ मन्दिर
माँ की ममता से ज्यादा शीतल न मिलेगी गंगा
माँ के वचन रिचाओं जैसे छपे ग्रन्थ के अक्षर

5 टिप्‍पणियां:

  1. Fantastic ..... very different from what I keep reading ..... I cried reading this poem ...

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  2. शानदार, खूबसूरत और प्रशंसनीय। माँ के अहसास को सजीव करने वाले उद्‌गार। साधुवाद और शुभकामनाओं सहित।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश, सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इसमें वर्तमान में ४२८० आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८)E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in

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  3. ऐसे ही भाव मातृ-वंदना कहलाते हैं. माँ की एक सच्ची आरती सा स्वाद है आपकी कविता में.
    संस्कृत का एक गीत भी कुछ यही भाव लिए है:
    "मम माता देवता
    अति सरला, गृह कुशला, सा अतुला, सा मृदुला,
    मम माता देवता"

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  4. Thank you very much readers! Your suggestions and remarks are welcome.

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  5. बहुत बढ़िया...स्वागत है!

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